उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
|
2 पाठकों को प्रिय 371 पाठक हैं |
कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'विजय ही तो है।' एक ने
कहा।
'घोड़ा उसके वश में नहीं
है, अब गिरा ही चाहता है।' दूसरे ने कहा।
पवन
से विजय के बाल बिखर रहे थे, उसका मुख भय से विवर्ण था। उसे अपने गिर जाने
की निश्चित आशंका थी। सहसा एक युवक दौड़ता हुआ आगे बढ़ा, बड़ी तत्परता से
घोड़े की लगाम पकड़कर उसके नथुने पर सबल घूँसा मारा। दूसरे क्षण वह
उच्छृंखल अश्व सीधा होकर खड़ा हो गया। विजय का हाथ पकड़कर उसने धीरे से
उतार लिया। अब तो और भी कई लड़के एकत्र हो गये। युवक का हाथ पकड़े हुए
विजय उसके होस्टल की ओर चला। वह एक सिनेमा का-सा दृश्य था। युवक की
प्रशंसा में तालियाँ बजने लगीं।
विजय उस युवक के कमरे में
बैठा हुआ बिखरे हुए सामानों को देख रहा था। सहसा उसने पूछा, 'आप यहाँ
कितने दिनों से हैं?'
'थोड़े ही दिन हुए हैं?'
'यह किस लिपि का लेख है?'
'मैंने पाली का अध्ययन
किया है।'
इतने
में नौकर ने चाय की प्याली समाने रख दी। इस क्षणिक घटना ने दोनों को
विद्यालय की मित्रता के पार्श्व में बाँध दिया; परन्तु विजय बड़ी उत्सुकता
से युवक के मुख की ओर देख रहा था, उसकी रहस्यपूर्ण उदासीन मुखकान्ति विजय
के अध्ययन की वस्तु बन रही थी।
'चोट तो नहीं लगी?' अब
जाकर युवक ने पूछा।
|