उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
दासी ने कहा, 'आज का
भण्डारा है।'
विजय
विरक्त होकर अपनी नित्यक्रिया में लगा। साबुन पर क्रोध निकालने लगा,
तौलिये की दुर्दशा हो गयी। कल का पानी बेकार गिर रहा था; परन्तु वह आज
नहाने की कोठरी से बाहर निकलना ही नहीं चाहता था। तो भी समय पर स्कूल चला
गया। किशोरी ने कहा भी, 'आज न जा, साधुओं का भोजन है, उनकी सेवा...।'
बीच ही में बात काटकर
विजय ने कहा, 'आज फुटबॉल है, मुझे शीघ्र जाना है।'
विजय बड़ी उत्तेजित
अवस्था में स्कूल चला गया।
मंगल
के कमरे का जंगला खुला था। चमकीली धूप उसमें प्रकाश फैलाये थी। वह अभी तक
चद्दर लपेटे पड़ा था। नौकर ने कहा, 'बाबूजी, आज भी भोजन न कीजियेगा।'
बिना मुँह खोले मंगल ने
कहा, 'नहीं।'
भीतर प्रवेश करते हुए
विजय ने पूछा, 'क्यों क्या। आज भी नहीं, आज तीसरा दिन है।'
नौकर ने कहा, 'देखिये
बाबूजी, तीन दिन हो गये, कोई दवा भी नहीं करते, न कुछ खाते ही हैं।'
विजय ने चद्दर के भीतर
हाथ डालकर बदन टटोलते हुए कहा, 'ज्वर तो नहीं है।'
नौकर
चला गया। मंगल ने मुँह खोला, उसका विवर्ण मुख अभाव और दुर्बलता का
क्रीड़ा-स्थल बना था। विजय उसे देखकर स्तब्ध रह गया। सहसा उसने मंगल का
हाथ पकड़कर घबराते हुए स्वर में पूछा, 'क्या सचमुच कोई बीमारी है?'
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