उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
थोड़ी
ही देर में ताँगा लेकर विजय आ गया। मंगल उसके साथ ताँगे पर जा बैठा, दोनों
मित्र हँसना चाहते थे। पर हँसने में उन्हें दुःख होता था।
विजय
अपने बाहरी कमरे में मंगलदेव को बिठाकर घर में गया। सब लोग व्यस्त थे,
बाजे बज रहे थे। साधु-ब्राह्मण खा-पीकर चले गये थे। विजय अपने हाथ से भोजन
का सामान ले गया। दोनों मित्र बैठकर खाने-पीने लगे।
दासियाँ जूठी
पत्तल बाहर फेंक रही थीं। ऊपर की छत से पूरी और मिठाइयों के टुकड़ों से
लदी हुई पत्तलें उछाल दी थीं। नीचे कुछ अछूत डोम और डोमनियाँ खड़ी थीं,
जिनके सिर पर टोकरियाँ थीं, हाथ में डंडे थे - जिनसे वे कुत्तों को हटाते
थे और आपस में मार-पीट, गाली-गलौज करते हुए उस उच्छिष्ट की लूट मचा रहे थे
- वे पुश्त-दर-पुश्त के भूखे!
मालकिन झरोखे से अपने
पुण्य का यह
उत्सव देख रही थी - एक राह की थकी हुई दुर्लब युवती भी। उसी भूख की, जिससे
वह स्वयं अशक्त हो रही थी, यह वीभत्स लीला थी! वह सोच रही थी - क्या संसार
भर में पेट की ज्वाला मनुष्य और पशुओं को एक ही समान सताती है ये भी
मनुष्य हैं और इसी धार्मिक भारत के मनुष्य जो कुत्तों के मुँह के टुकड़े
भी छीनकर खाना चाहते हैं। भीतर जो पुण्य के नाम पर, धर्म के नाम पर
गुलछर्रे उड़ रहे हैं, उसमें वास्तविक भूखों का कितना भाग है, यह पत्तलों
के लूटने का दृश्य बतला रहा है। भगवान्! तुम अन्तर्यामी हो।
युवती
निर्बलता से न चल सकती थी। वह साहस करके उन पत्तल लूटने वालों के बीच में
से निकल जाना चाहती थी। वह दृश्य असह्य था, परन्तु एक डोमिन ने समझा कि यह
उसी का भाग छीनने आयी है। उसने गन्दी गालियाँ देते हुए उस पर आक्रमण करना
चाहा, युवती पीछे हटी; परन्तु ठोकर लगते ही गिर पड़ी।
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