उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'मैं देव-मन्दिर में चली
गयी थी।'
'तब क्या हुआ?'
'बाबाजी बिगड़ गये।'
'रो मत, मैं उनसे
पूछूँगा।'
'मैं
उनके बिगड़ने पर नहीं रोती हूँ, रोती हूँ तो अपने भाग्य पर और हिन्दू समाज
की अकारण निष्ठुरता पर, जो भौतिक वस्तुओं में तो बंटा लगा ही चुका है,
भगवान पर भी स्वतंत्र भाग का साहस रखता है!'
क्षणभर के लिए विजय
विस्मय-विमुग्ध रहा, यह दासी-दीन-दुखिया, इसके हृदय में इतने भाव उसकी
सहानुभूति उच्छृंखल हो उठी, क्योंकि यह बात उसके मन की थी। विजय ने कहा,
'न रो यमुना! जिसके भगवान् सोने-चाँदी से घिरे रहते हैं, उनको रखवाली की
आवश्यकता होती है।'
यमुना की रोती आँखें हँस
पड़ीं, उसने
कृतज्ञता की दृष्टि से विजय को देखा। विजय भूलभुलैया में पड़ गया। उसने
स्त्री की - एक युवती स्त्री की - सरल सहानुभूति कभी पाई न थी। उसे भ्रम
हो गया जैसे बिजली कौंध गयी हो। वह निरंजन की ओर चला, क्योंकि उसकी सब
गर्मी निकालने का यही अवसर था।
निरंजन अन्नकूट के सम्भार
में लगा
था। प्रधान याजक बनकर उत्सव का संचालन कर रहा था। विजय ने आते ही आक्रमण
कर दिया, 'बाबाजी आज क्या है?'
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