उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'हम लोगों को तो अभी
स्नान करना है, चलो वहीं नाव लगाकर हम लोग भी निपट लें।'
माझियों
ने उधर की ओर नाव खेना आरम्भ किया। नाव रेत से टिक गयी। बरसात उतरने पर यह
द्वीप बन गया था। अच्छा एकान्त था। जल भी वहाँ स्वच्छ था। किशोरी ने कहा,
'यमुना, चलो हम लोग भी नहा लें।'
'आप लोग आ जायें, तब मैं
जाऊँगी।' यमुना ने कहा। किशोरी उसकी सचेष्टता पर प्रसन्न हो गयी। वह अपनी
दो सहेलियों के साथ बजरे से उतर गयी।
मंगलदेव पहले ही कूद पड़ा
था। विजय भी कुछ इधर-उधर करके उतरा। द्वीप के विस्तृत किनारों पर वे लोग
फैल गये। किशोरी और उनकी सहेलियाँ स्नान करके लौट आयीं, अब यमुना अपनी
धोती लेकर बजरे में उतरी और बालू की एक ऊँची टोकरी के कोने में चली गयी।
यह कोना एकान्त था। यमुना गंगा के जल में पैर डालकर कुछ देर तक चुपचाप
बैठी हुई, विस्तृत जलधारा के ऊपर सूर्य की उज्ज्वल किरणों का प्रतिबिम्ब
देखने लगी। जैसे रात के तारों की फूल-अंजली जाह्नवी के शीतल वृक्ष कर किसी
ने बिखेर दी हो।
पीछे निर्जन बालू का
द्वीप और सामने दूर पर नगर
की सौध-श्रेणी, यमुना की आँखों में निश्चेष्ट कुतूहल का कारण बन गयी। कुछ
देर में यमुना ने स्नान किया। ज्यों ही वह सूखी धोती पहनकर सूखे बालों को
समेट रही थी, मंगलदेव सामने आकर खड़ा हो गया। समान भाव से दोनों पर
आकस्मिक आने वाली विपद को देखकर परस्पर शत्रुओं के समान मंगलदेव और यमुना
एक क्षण के लिए स्तब्ध थे।
'तारा! तुम्हीं हो!' बड़े
साहस से मंगल ने कहा।
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