उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
डॉक्टर
बहुत ही स्पष्टवादी और चिड़चिड़े स्वभाव का था और नगर में अपने काम में एक
ही था। उसने कहा, 'मुझे दोनों समय देखने का अवकाश नहीं, और आवश्यकता भी
नहीं। यदि आप लोगों से स्वयं इतना भी नहीं हो सकता, तो डॉक्टर की दवा करनी
व्यर्थ है।'
'जैसा आप कहेंगे वैसा ही
होगा। आपको समय पर ठीक समाचार मिलेगा। डॉक्टर साहब दया कीजिये।' यमुना ने
कहा।
डॉक्टर
ने रुमाल निकालकर सिर पोंछा और मंगल के दिये हुए कागज पर औषधि लिखी। मंगल
ने किशोरी से रुपया लिया और डॉक्टर के साथ ही वह औषधि लेने चला गया।
मंगल
और यमुना की अविराम सेवा से आठवें दिन विजय उठ बैठा। किशोरी बहुत प्रसन्न
हुई। निरंजन भी तार द्वारा समाचार पाकर चले आये थे। ठाकुर जी की सेवा-पूजा
की धूम एक बार फिर मच गयी।
विजय अभी दुर्बल था।
पन्द्रह दिनों
में ही वह छः महीने का रोगी जान पड़ता था। यमुना आजकल दिन-रात अपने
अन्नदाता विजय के स्वास्थ्य की रखवाली करती थी, और अब निरंजन के ठाकुर जी
की ओर जाने का उसे अवसर ही न मिलता था।
जिस दिन विजय बाहर आया,
वह सीधे मंगल के कमरे में गया। उसके मुख पर संकोच और आँखों में क्षमा थी।
विजय के कुछ कहने के पहले ही मंगल ने उखड़े हुए शब्दों में कहा, 'विजय,
मेरी परीक्षा भी समाप्त हो गयी और नौकरी का प्रबन्ध भी हो गया। मैं
तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। आज ही जाऊँगा, आज्ञा दो।'
'नहीं मंगल! यह तो नहीं
हो सकता।' कहते-कहते विजय की आँखें भर आयीं।
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