उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
बसंत
की संध्या सोने की धूल उड़ा रही थी। वृक्षों के अन्तराल से आती हुए
सूर्यप्रभा उड़ती हुई गर्द को भी रंग देती थी। एक अवसाद विजय के चारों ओर
फैल रहा था। वह निर्विकार दृष्टि से बहुत सी बातें सोचते हुए भी किसी पर
मन स्थिर नहीं कर सकती। घण्टी और मंगल के परदे में यमुना अधिक स्पष्ट हो
उठी थी। उसका आकर्षण अजगर की साँस के समान उसे खींच रहा था। विजय का हृदय
प्रतिहिंसा और कुतूहल से भर गया था। उसने खिड़की से झाँककर देखा, घण्टी आ
रही है। वह घर से बाहर ही उससे जा मिला।
'कहाँ विजय बाबू?' घण्टी
ने पूछा।
'मंगलदेव के आश्रम तक,
चलोगी?'
'चलिये।'
दोनों
उसी पथ पर बढ़े। अँधेरा हो चला था। मंगल अपने आश्रम में बैठा हुआ
संध्यापासन कर रहा था। पीपल के वृक्ष के नीचे शिला पर पद्मासन लगाये वह
बोधिसत्त्व की प्रतिमूर्ति सा दिखता था। विजय क्षण भर देखता रहा, फिर मन
ही मन कह उठा – पाखण्ड। आँख खोलते हुए सहसा आचमन लेकर मंगल ने धुँधले
प्रकाश में देखा - विजय! और दूर कौन है, एक स्त्री वह पल भर के लिए
अस्त-व्यस्त हो उठा। उसने पुकारा, 'विजय बाबू!'
विजय और घण्टी
वहीं लौट पड़े, परन्तु उस दिन मंगल से पुरुष सूक्त का पाठ न हो सका। दीपक
जल जाने पर जब वह पाठशाला में बैठा, तब प्राकृत प्रकाश के सूत्र उसे बीहड़
लगे। व्याख्या अस्पष्ट हो गयी। ब्रह्मचारियों ने देखा-गुरुजी को आज क्या
हो गया है।
विजय घर लौट आया। यमुना
रसोई बनाकर बैठी थी। हँसती
हुई घण्टी को उसने साथ ही आते देखा। वह डरी। और न जाने क्यों उसने पूछा।
विजय बाबू, “विदेश में एक विधवा तरुणी को लिए इस तरह घूमना क्या ठीक है?'
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