उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
|
1 पाठकों को प्रिय 266 पाठक हैं |
रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
छब्बीसवां बयान
रनबीर को साथ लिए हुए साधु महाशय धीरे-धीरे पश्चिम की तरफ रवाना हुए और सूर्य अस्त होते-होते तक जंगल ही जंगल बराबर चले गए। यद्यपि धूप की तेजी दुःखदाई थी, परन्तु घने पेड़ों की बदौलत दोनों मुसाफिरों को कोई कष्ट न हुआ। इस बीच में उन दोनों में विशेष बातचीत न हुई, हां, दो-चार बातें मतलब की हुईं जिन्हें हम नीचे लिखते हैं–
साधु–तुमने समझा होगा कि जसवंत को मारकर और बालेसिंह को बेकाम करके हम निश्चिन्त हो गए मगर नहीं, तुम्हें उस भारी दुश्मन की कुछ भी खबर नहीं है जिसकी बदौलत तुम्हारे पिता ने दुःख भोगा और जो तुमको भी सुख की नींद सोने न देगा।
रनबीर–उस कागज के पढ़ने से मुझे बहुत कुछ हाल मालूम हुआ है। आशा है कि उस दुश्मन का पता आप मुझे देंगे और मैं जिस तरह हो सकेगा उससे बदला ले सकूंगा।
साधु–बेशक ऐसा ही होना चाहिए। तुम वीर-पुत्र हो इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम स्वयं बहादुर हो, इसलिए दुश्मन से अपना बदला अवश्य लोगे। मैं एक आदमी से तुम्हारी मुलाकात कराता हूं, जो समय पर तुम्हारी सहायता करेगा। ताज्जुब नहीं कि इस काम को करते-करते बहुत से दीन दुःखियाओं का भला भी तुम्हारे हाथ से हो जाए। तुम्हें इस समय कुसुम का ध्यान भला देना चाहिए क्योंकि उस कागज के पढ़ने से तुम समझ ही गए होगे कि कुसुम की भलाई भी इस काम के साथ ही साथ होगी।
रनबीर–बेशक ऐसा ही है।
इसके अतिरिक्त और जो कुछ बातें हुईं उनके लिखने की हम कोई आवश्यकता नहीं समझते।
सूर्य अस्त होने पर ये दोनों यात्री उस घने जंगल से बाहर हुए और एक पहाड़ी के नीचे पहुंचे, अब साधु महाशय उस पहाड़ी के नीचे-नीचे दक्खिन की तरफ जाने लगे। लगभग आध कोस के जाने बाद एक छोटी-सी बावली और उसके किनारे एक बारहदरी दिखाई पड़ी जिसके पास पहुंचने पर साधु महाशय ने रनबीर की तरफ देखा, ‘‘दो-तीन घंटे यहां आराम करना उचित है, इसके बाद पहाड़ी पर चढ़ेंगे।’’ इसके जवाब में रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा ।’’
|