उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
सत्ताईसवां बयान
थोड़ी ही दूर जाने पर रनबीरसिंह को मालूम हो गया कि वे सब लोग भी उसी तरफ जा रहे हैं जिधर बालेसिंह गया है या जिधर से जानेवाले थे। यद्यपि रात का समय था मगर आगे-आगे मशाल की रोशनी रहने के कारण रनबीरसिंह ने उन निशानों में से कई निशान देखे जो रास्ते में मिलने वाले थे और जिनके बारे में संन्यासी ने पता दिया था। यह रास्ता थोड़ा दूर तक चश्मे के किनारे-किनारे गया था और उसके बाद चक्कर खाकर ढालवी पहाड़ी उतरनी पड़ती थी। रनबीरसिंह उन लोगों के पीछे-पीछे घूम-घुमौवे और पेचीदे रास्ते पर नीचे की तरफ झुकते हुए पहर भर तक बराबर चले गए और इसके बाद एक मकान के पास पहुंचे। यह मकान बहुत लम्बा-चौड़ा पत्थरों से बना हुआ और चारों तरफ के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से इस तरह घिरा हुआ था कि रास्ते का हाल पूरा-पूरा जाने बिना यहां तक किसी का पहुंचना बहुत ही मुश्किल था। यद्यपि यह मकान बहुत बड़ा था मगर उसका दरवाजा इतना छोटा था कि एक-साथ दो आदमियों से ज्यादा उसके अन्दर नहीं जा सकते थे। नौजवान सवार ने दरवाजे के पास पहुंच कर एक सीटी बजाई जिसे सुनते ही चार आदमी मकान के बाहर निकल आए। नौजवान घोड़े पर से उतर पड़ा और उन चारों को कुछ कहकर मकान के अन्दर चला गया। उन चारों मे से एक आदमी उसका घोड़ा थाम कर चक्कर खाता हुआ मकान के पीछे की तरफ चला गया और तीन आदमी उस नौजवान के अन्दर जाते ही उन पांचों औरतों और मशालची तथा सिपाही को साथ लिए हुए मकान के अन्दर चले गए।
रनबीरसिंह दूर खड़े यह सब तमाशा देख रहे थे। जब मकान के बाहर सन्नाटा हो गया तो वे एक पत्थर की चट्टान पर यह सोचकर लेट रहे कि सवेरा होने पर जो कुछ होगा देखा जाएगा, मगर उनकी आंखों में नींद न थी क्योंकि वे इस बात को भी सोच रहे थे कि कहीं ऐसा न हो कि इस मकान के अन्दर से वे औरतें जिनके पीछे-पीछे हम जाए हैं या और कोई निकल कर बाहर चला जाए और उन्हें खबर तक न हो।
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