उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
उनतीसवां बयान
जिस समय रनबीरसिंह ने चौंककर पीछे की तरफ देखा और उस सरदार पर निगाह पड़ी जो वहां के रहने वालों का मालिक था तो उनका क्रोध चौगुना बढ़ गया। यद्यपि यह ऐसा मौका था कि देखने के साथ ही रनबीरसिंह उससे डर जाते मगर नहीं, डर के बदले में क्रोध से उनकी भुजा फड़क उठी क्योंकि उनका प्यारा बाप जो न मालूम कितने दिनों से दुःख भोग रहा था, कैदियों की तरह बेबस उनके सामने मौजूद था और जिसने उनके बाप को कैद कर रखा था और हर तरह का दुख दिया था उसने भी माफी मांगने के बदले में धमकी की आवाज दी थी।
इस समय रनबीरसिंह ने जितनी तेजी और फुर्ती दिखाई उससे ज्यादे कोई आदमी दिखा नहीं सकता था। उनके दिल में क्रोध के साथ ही साथ इस खयाल ने भी तुरन्त जगह पकड़ ली कि–‘‘कहीं यह सरदार इस जंगले वाली कोठरी का दरवाजा बाहर से बन्द करके मेरे पिता की तरह मुझे भी बेबस और मजबूर न कर दे।’’
अस्तु रनबीरसिंह बिजली की तरह लपक कर कोठरी के बाहर निकल आए और आते ही उन्होंने उस सरदार के गले में हाथ डाल दिया। यद्यपि वह सरदार ताकतवर और बहादुर था मगर इस समय रनबीरसिंह के सामने उसके बल-कौशल ने उसका कोई साथ न दिया, यहां तक कि वह म्यान से तलवार भी न निकाल सका। उसने कुश्ती के ढंग पर दांव-पेंच करना चाहा परन्तु रनबीर ने उसका भी जवाब देकर उसे जमीन पर पटक दिया और उसकी छाती पर चढ़कर ऐसा दबाया और एक दफे कूदे की उसकी तमाम पसलियां कड़कड़ाकर टूट गईं और उसने अपनी जिन्दगी की आखिरी निगाह रनबीर पर डालकर आंखें उलट दीं। उसके मुंह से खून का सोता-सा बह चला और वह फिर न उठा। दो-चार दफे सांस लेने के बाद उसकी आत्मा ने यमालय की तरफ प्रस्थान किया।
रनबीरसिंह उसकी छाती पर से उतरे और उसे अच्छी देखने और जांचने के बाद पुनः जंगले के अन्दर जाकर अपने बाप के पास पहुंचे जिनके मुंह से दो दफें ‘शाबाश, शाबाश’ की आवाज निकल चुकी थी।
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