उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
इकतीसवां बयान
अब हम अपन पाठकों को राजा नारायणदत्त के लश्कर में ले चलते हैं। कुसुम कुमारी की राजधानी तेजगढ़ से लगभग दो कोस की दूरी पर राजा नारायणदत्त का लश्कर उतरा हुआ है। लश्कर में हजार-बारह सौ आदमियों से ज्यादे की भीड़-भाड़ नहीं है और कोई बहुत बड़ा या शानदार खेमा वा शामियाना भी दिखाई नहीं देता, छोटी-मोटी मामूली रावटियों में अफसरों, सरदारों, तथा गल्ला इत्यादि बांटने वालों का डेरा पड़ा हुआ है और उसी तरह की एक रावटी में राजा नारायणदत्त का भी आसन लगा हुआ है। और रावटियों में राजा साहब की रावटी से यदि कुछ भेद है तो इतना ही कि राजा साहब की रावटी आसमानी रंग की है और बाकी सब रावटियां सफेद कपड़े की।
पहरभर से कुछ ज्यादे रात बीत जाने पर जिस समय कुसुम कुमारी के दीवान और बीरसेन वहां पहुंचे और आज्ञानुसार राजा साहब के पास हाजिर किए गए उस समय उन्होंने देखा कि राजा साहब एक चटाई पर साधु रूप से बैठे हुए हैं सिर के बाल संवारे न जाने के कारण बिखरे हुए हैं, ललाट में भस्म का त्रिपुण्ड और बीच में सिन्दूर की बिन्दी लगी हुई हैं बदन में गेरुए रंग के रेशमी कपड़े का एक चोगा है जिससे तमाम बदन ढंका हुआ है, खुशबूदार जल और इत्र से शरीर की सेवा न होने पर भी प्रताप और तपोबल उनके सुन्दर तथा सुडौल चेहरे से झलक रहा है और बड़ी-बड़ी आंखें एक ग्रन्थ की तरफ झुकी हुई है, जो लकड़ी की छोटी-सी चौकी पर उनके सामने रखा हुआ है और जिसके बगल में घी का बड़ा-सा चिराग जल रहा है।
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