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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

 

ग्यारहवां बयान

सूर्य अस्त हो चुका था, पर वह चंद्रमा जो सूर्य अस्त्र होने के पहले ही से आसमान पर दिखाई दे रहा था। अब खूब तेजी के साथ माहताबी रोशनी फैलाकर रनबीरसिंह को रास्ता दिखाने और चलने में मदद करने लगा और ये भी खुशी से फूले हुए उस सवार के साथ जाने लगे। कभी-कभी कहते थे कि कदम बढ़ाए चलो जिसके जवाब में वह खत लानेवाला सवार कहता था कि राह ठीक नहीं है और जैसे-जैसे हम लोग बढ़ेगे और भी खराब मिलता जाएगा, इसलिए धीरे ही धीरे चलना मुनासिब होगा। लाचार रनबीरसिंह उसी के मन माफिक चलते थे, फिर भी अगर ये उस स्थान को जानते होते जहां जाने की हद्द से ज्यादे खुशी थी तो उस सवार की बात कभी न मानते और पत्थरों की ठोकर खाकर गिरने, सिर फूटने या मरने तक का भी खौफ न करके जहां तक हो सकता तेजी के साथ चलकर अपने को वहां पहुंचाते, जहां के लिए रवाना हुए थे।

राह की खराबी के बारे में उस सवार का कहना झूठ न था। जैसे–जैसे आगे बढ़ते थे, रास्ता ऊंचा-नीचा और पथरीला मिलता जाता था और यह भी मालूम होता था कि धीरे-धीरे पहाड़ के ऊपर चढ़ते जा रहे हैं, मगर यह चढ़ाई सीधी न थी, बहुत घूम फिर कर जाना पड़ रहा था।

आधी रात तक तो इन लोगों को चंद्रमा की मनमानी रोशनी मिली जिसके सबब से चलने में बहुत तकलीफ न हुई मगर अब चंद्रमा भी अपने घर के दरवाजे पर जा पहुंचा था और जंगल बहुत घना मिलने लगा। जिसके सबब से चलने में बहुत तकलीफ होने लगी, यहां तक कि घोड़े से उतरकर पैदल चलने की नौबत पहुंची।

थोड़ी देर तक बड़ी तकलीफ के साथ अंधेरे में चलने के बाद साथी सवार अटक गया। रिनवीरसिंह ने रुकने की सबब पूछा जिसके जवाब में उसने कहा, ‘‘हम लोग अपने ठिकाने के बहुत पास आ चुके है; मगर अब अंधेरे के सबब रास्ता बिलकुल नहीं मालूम होता और यह जंगल ऐसा भयानक और रास्ता ऐसा खराब है कि अगर जरा भी भूलकर इधर-उधर टसके तो कोसो भटकना पड़ेगा!’’

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