उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
तीसरा बयान
रात आधी से ज्यादे जा चुकी थी जब जसवंतसिंह अवधूती सूरत बनाए उस गांव की तरफ रवाना हुए। रनबीरसिंह की याद में आंसू बहाते ढूंढ़ने की तरकीबें सोचते चले जा रहे थे। यह बिलकुल मालूम नहीं था कि उनका दुश्मन कौन है या किसने उन्हें गिरफ्तार किया होगा। वे सवार भी फिर उस तरफ नहीं लौटे जिधर से आए थे।
जसवंतसिंह अभी उस गांव के पास भी नहीं पहुंचे थे बहुत दूर इधर ही थे, कि सामने से बुहत से घोड़ों के टापों की आवाज आने लगी जिसे सुन ये चौंक पड़े और सिर उठाकर देखने लगे। कुछ ही देर में बहुत से सवार जो पचास से कम न होंगे वहां आ पहुंचे। जसवंतसिंह को देख सभी ने घोड़ा रोका, मगर एक सवार ने जोर से कहा, ‘‘सभी के रुकने की कोई जरूरत नहीं, हरीसिंह अपने दसों सवारों के साथ रुकें, हम लोग बढ़ते हैं।’’ इतना कह उसी पहाड़ी की तरफ रवाना हो गए, जहां से रनबीरसिंह गायब हुए थे।
कुल सवार तो उस पहाड़ी की तरफ चले गए मगर ग्यारह सवार जसवंत सिंह के सामने रह गए, जिनमें से एक ने जिसका नाम हरीसिंह था, आगे बढ़कर इनसे पूछा, ‘‘बाबाजी, आप कौन हैं और कहां से आ रहे हैं?’’
जसवंत–मैं एक गरीब साधु हूं और (हाथ से बताकर) उस पहाड़ी के नीचे से चला आ रहा हूं।
सवार–वहां किसी आदमी को देखा था?
जसवंत–हां, पांच सवारों को मैंने देखा था जो पहाड़ी के ऊपर जा रहे थे।
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