उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
लड़ाई को घण्टा भर से ज्यादे हो गया, इस बीच बालेसिंह के पचास सवार जान से मारे गए और दो सौ लड़ाके बेकाम होकर जमीन पर लेट गए, उनके घोड़े भी जख्मी होकर और अपनी पीठ खाली पाकर मैदान की तरफ भाग गए। बालेसिंह के बदन पर भी कई जख्म लगे, बहादुर रनबीरसिंह ने तीस आदमी मारे गए और वह स्वयं भी जख्मी हुए मगर लड़ने की हिम्मत अभी बाकी थी। दिलेर बीरसेन भी यद्यपि जख्मी हुए था मगर दिलावरी के साथ अभी तक कुसुम को दुश्मनों के हाथ से बचाए रहा।
यह लड़ाई ऐसी नहीं थी कि छिपी रहे, और दिन विशेष चढ़ जाने के कारण इस लड़ाई की धूम और भी हो गई। किले में से पांच सौ बहादुर सिपाही और आ पहुंचे जो कुसुम कुमारी के लिए जान देने को तैयार थे और इसी तरह बालेसिंह के हजार फौजी सिपाही भी उस जगह आ पहुंचे। अब लड़ाई का ढंग बिलकुल ही बदल गया। हटते-हटते रनबीरसिंह अपनी फौज के सहित किले की तरफ हो गए और बालेसिंह मुकाबले में अपने लश्कर की तरफ हो गया और लड़ाई कायदे के साथ होने लगी।
पांच सौ फौजी आदमियों के पहुंच जाने से बीरसेन को मौका मिल गया। वह रनबीरसिंह की आज्ञानुसार महारानी कुसुम कुमारी की डोली को दुश्मनों के हाथ से बचाकर चोर दरवाजे की राह से किले के अन्दर जा पहुंचा और किले के अन्दर से तोप की आवाज आने से रनबीरसिंह समझ गए कि उनकी पतिव्रता स्त्री कुसुम कुशलतापूर्वक किले के अन्दर पहुंच गई, क्योंकि यह काम भी इन्हीं की आज्ञानुसार हुआ था।
कुसुम कुशलपूर्वक किले के अन्दर पहुंच गई मगर उसकी जान लड़ाई के मैदान ही में रह गई। जिसका फैसला रनबीरसिंह की जिन्दगी पर मुनहसिर था। यदि रनबीरसिंह की जान बच गई तो कुसुम भी जीती बचेगी नहीं तो वह विधवा होकर इस दुनिया में जिन्दगी बिताने वाली औरत नहीं है। इसी तरह की कितनी ही बातें सोच कुसुम ने बीरसेन से पूछा, ‘‘वह दस हजार फौज जो तुम्हारे मातहत में थी एक समय कहां है और कब हम लोगों के काम आवेगी?’’
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