उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
|
1 पाठकों को प्रिय 266 पाठक हैं |
रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
पहर भर से ज्यादे रात जा चुकी है, चन्द्रमा के दर्शन की कोई आशा नहीं है परन्तु साधु महाशय को इसकी कोई परवाह नहीं, वह रनबीरसिंह को साथ ले पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। इस समय रनबीरसिंह के दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होती थीं परन्तु न जाने क्यों उन्हें साधु पर इतना विश्वास हो गया था कि उसकी आज्ञा के विरुद्ध कुछ भी करने का जरा भी साहस नहीं कर सकते थे। आधी रात जाने के पहले ही दोनों मुसाफिर उस पहाड़ी के ऊपर जा पहुंचे।
इस पहाड़ी के ऊपर से चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखना और विचित्र छटा का आनन्द लेना इस समय कठिन है क्योंकि रात का समय तिस पर चन्द्रदेव के दर्शन अभी तक नहीं हुए, हां, इतना मालूम हुआ कि पश्चिम तरफ मैदान है। रनबीरसिंह को साथ लिए हुए साधु महाशय उसी मैदान की तरफ रवाना हुए और लगभग आध कोस के जाकर रुके क्योंकि आगे की जमीन ढालवी थी और उन दोनों को नीचे की तरफ उतरना था। रनबीरसिंह को चलने में परिश्रम हुआ होगा और थक गए होंगे यह सोचकर साधु महाशय रनबीरसिंह को एक चट्टान पर बैठने का इशारा करके आप भी उसी पर बैठ गए मगर थोड़ी देर दम लेकर फिर उठ खड़े हुए और बाईं तरफ झुकते हुए ढालवी पहाड़ी उतरने लगे। लगभग सौ कदम के जाकर एक गुफा के मुंह पर साधु खड़े हुए और कुछ ऊंची आवाज में बोले, ‘‘महादेव,’’ इसके जवाब में गुफा के अन्दर से भी वैसी ही आवाज आई और साथ ही इसके एक संन्यासी बाहर निकल आया जिसने रनबीरसिंह की तरफ इशारा करके साधु महाशय से कुछ पूछा। संन्यासी की विचित्र बोली रनबीर की समझ में न आई और उसके जवाब में साधु ने भी जो कुछ कहा वह भी वे समझ न सके। इसके बाद दोनों को लिए हुए संन्यासी गुफा के अन्दर चला गया और जब तक रात बाकी रही उस गुफा के अन्दर से कोई भी न निकला, सवेरा होने पर बल्कि कुछ दिन निकलने पर तीनों आदमी गुफा के बाहर आए। मगर इस समय रनबीर सिंह की सूरत कुछ विचित्र ही हो रही थी, उनका तमाम बदन इतना काला हो गया था कि उनका संगी-साथी भी उन्हें नहीं पहचान सकता था। रनबीरसिंह अपने बदन की तरफ देखकर हंसे और बोले, ‘‘बूटी तो लाल थी परन्तु उसके रस ने मुझे बिलकुल ही काला कर दिया।’’
|