उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
महारानी–(कुछ शर्माकर और नीची गर्दन करके) आपसे कहने में तो कोई हर्ज नहीं, खैर कहती हूं। एक वर्ष के लगभग हुआ कि उसने अपनी एक तसवीर मेरे पास भेजा और कहला भेजा कि तुम मेरे साथ शादी कर लो, पर मैंने इसे कबूल न किया। क्योंकि मेरा दिल अपने काबू में न था। बहुत पहले ही से वह रनबीरसिंह के काबू में जा चुका था और मैं दिल में उनको अपना मालिक बना चुकी थी, जिस बात को किसी तरह बालेसिंह भी सुन चुका था। उसने बहुत जोर मारा मगर कुछ न कर सका, बस यही असल सबब है।
जसवंत–(ताज्जुब में आकर) आपने रनबीरसिंह को कब देखा? क्या आप ही ने उस पहाड़ी पर अपनी रनबीरसिंह की मूरत बनवाई थी?
महारानी–हां, मगर वह सब हाल मैं, अभी न कहूंगी, मौका आवेगा तो तुम्हें आप ही मालूम हो जाएगा।
जसवंत–अच्छा उस बालेसिंह की वह तसवीर कहां है? जरा मैं देखूं?
महारानी–हां देखो, (एक लौंडी से) वह तस्वीर तो ले आ।
महारानी का हुक्म पाते ही लौंडी लपकी हुई गई और वह तसवीर जो हाथ भर से कुछ छोटी होगी, ले आई। जसवंतसिंह ने उसे गौर से देखा। अजीब तसवीर थी, उसके एक अंग से बहादुरी और दिलावरी झलकती थी, मगर साथ ही इसकी सूरत बहुत ही डरावनी, रंग काला, बड़ी-बड़ी सुर्ख आंखे, ऊपर की तरफ चढ़ी हुई कड़ी-कड़ी मूंछें–देखने ही से रोंगटे खड़े होते थे। मोटे-मोटे मजबूत ऐठे हुए अंगो पर की चुस्त पोशाक और ढाल तलवार पर निगाह डालने ही से बहादुरी छिपी फिरती थी, मगर जसवंतसिंह उसे देखकर हंस पड़ा और बोला–‘‘वाह! क्या सूरत है। कैसे हाथ पैर हैं! मजा तो तभी था न कि बहादुरी के साथ-साथ मेरे जैसी मुलायमियत और खूबसूरती भी होती। खैर आज ही कल में मुझसे और इस दुष्ट से हाथापाई होगी ही! देखें कितनी बहादुरी दिखाता है!’’
जसवंतसिंह की बात सुन और उसके चेहरे की तरफ गौर से देख, महारानी गुस्से में लाल आंखें कर उठ खड़ी हुईं और जब तक जसवंतसिंह आंख उठाकर उनकी तरफ देखें तब तक बिजली की तरह लपककर दूसरे कमरे में चली गई।
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