उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
हुक्म पाकर लौंडी जसवंतसिंह के पास गई और महारानी का संदेशा दिया। जिसे सुन बड़ी देर तक जसवंतसिंह चुप रहे इसके बाद जवाब दिया, ‘‘अच्छा, आज तो नहीं मगर कल मैं जरूर रनबीरसिंह के छुड़ाने की फिक्र में जाऊंगा।’’
जसवंतसिहं ने यह कह तो दिया कि रनबीरसिंह को छुड़ाने के लिए मैं कल जाऊंगा, मगर कल तक राह देखना और बेकार बैठे रहना भी उसने मुनासिब न समझा क्योंकि वह दुष्ट यही सोच रहा था कि जहां तक जल्द हो सके बालेसिंह से मेल करके रनबीरसिंह को मरवा देना चाहिए। आखिर उससे न रहा गया और शाम होते ही महारानी से हुक्म ले बालेसिंह की तरफ रवाना हुआ।
महारानी ने अपने लायक और ईमानदार दीवान को बुलाकर कहा, ‘‘आजकल मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती, कुछ-न-कुछ बीमार रहा करती हूं, मेरा इरादा है कि महीने-पंद्रह दिन तक बाग में जाकर रहूं और हवा-पानी बदलूं, तब तक राज का कोई काम न करूंगी। लीजिए यह मोहर अपनी आपको देती हूं, जब तक मेरी तबीयत बखूबी दुरुस्त, न हो जाए तब तक आप राज का काम ईमानदारी के साथ कीजिए।’’
दीवान ने पर्दे की तरफ हाथ जोड़कर अर्ज किया, ‘‘अगर सरकार की तबीयत दुरुस्त नहीं है तो जरूर कुछ दिन बाग में रहना चाहिए, ताबेदार से जहां तक होगा ईमानदारी से काम करेगा। ईश्वर चाहेगा तो किसी काम में हर्ज न होगा। ऐसा ही कोई मुश्किल काम आ पड़ेगा तो सरकारी हुक्म लेकर करूंगा।’’
महारानी ने कहा, ‘‘नहीं, जब तक मैं बाग से वापस न आऊं तब तक मुझे किसी काम के लिए मत टोकना, जो मुनासिब मालूम हो करना।’’
दीवान साहब ‘बहुत अच्छा, जो हुक्म सरकार का’ कह और सलाम कर रवाना हुए।
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