उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
|
1 पाठकों को प्रिय 266 पाठक हैं |
रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
हुक्म पाते ही चारों तरफ से जसवंत के ऊपर आदमी टूट पड़े और देखते-देखते उसे पकड़ रस्सियों से कस के बांध लिया।
बालेसिंह ने अपने हाथ से वे बिलकुल बातें कागज पर लिखीं जो उस वक्त जसवंतसिंह से और उससे हुई थीं और इसे एक आदमी के हाथ में देकर कहा, ‘‘यह पुर्जा रनबीरसिंह को दो और इस नालायक को ले जाकर जिस मकान में रनबीरसिंह है उसी में लोहे के जंगलेवाली कोठरी में बंद कर दो।’’
बालेसिंह ने पहाड़ी के ऊपर से रनबीरसिंह को गिरफ्तार तो जरूर किया था मगर अपने घर लाकर उनको बड़े आराम से रखा था। एक छोटा-सा खूबसूरत मकान उनके रहने के लिए मुकर्रर करके कई नौकर भी काम करने के लिए रख दिए थे और मकान के चारों तरफ एहरा बैठा दिया था।
मिजाज उनका अभी तक वैसा ही था। उस पत्थर की मूरत का इश्क सिर पर सवार था, घड़ी-घड़ी ठंडी सांस लेना रोना और बकना उनका बंद न हुआ था, खाने-पीने की सुध अभी तक न थी बल्कि उस पत्थर की तसवीर से अलहदे होकर उनको और भी सदमा हुआ था। बालेसिंह से हरदम लड़ने को मुस्तैद रहते थे मगर उनके सामने जब बालेसिंह आता था और उनको गुस्से में देखता था, तो हाथ जोड़ के यही कहता था, ‘‘मैं तो तुम्हारा ताबेदार हूं!’’
इतना सुनने ही से रनबीरसिंह का गुस्सा ठंडा हो जाता था और अपना क्षत्रिय धर्म याद कर उसे कुछ नहीं कहते थे, बल्कि किसी-न-किसी तरकीब से कह सुनकर बालेसिंह उनको कुछ खिला-पिला भी आता था। जब ये खाने से इनकार करते तो बालेसिंह कहता कि आप अगर कुछ न खाएंगे तो मैं उस पहाड़ी पर जाकर उस मनमोहिनी मूरत के टुकड़े-टुकड़े कर डालूंगा, और अगर आप इस वक्त कुछ खा लेंगे तो मैं वह मूरत आपके पास ले आऊंगा। यह सुन रनबीरसिंह लाचार हो जाते और कुछ-न-कुछ खाकर पानी पी ही लेते।
|