उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
|
1 पाठकों को प्रिय 266 पाठक हैं |
रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीर–(ऊंची सांस लेकर) ठीक ही है, भला इतना तो पता लगा कि वह पत्थर की मूरत झूठी न थी! खैर जो भी हो, मैं तो उसके दरवाजे की खाक ही बटोरा, करूंगा, इसी में मेरी इज्जत है।
रनबीरसिंह और जसवंतसिंह में बातें हो रही थीं कि कई आदमियों को साथ लिए बालेसिंह उसी जगह आ पहुंचा और रनबीरसिंह को जसवंत से बातें करते देख बोला–‘‘महाराजकुमार, आप इस नमकहराम से क्या बातें कर रहे हैं! यह पूरा बेईमान और पाजी है, इसका तो मुंह न देखना चाहिए!
रनबीर–यह मेरा पुराना दोस्त है, मुझे बिलकुल उम्मीद नहीं कि यह मेरे साथ बुराई करेगा।
बालेसिंह–आप भूलते हैं जो ऐसा सोचते हैं, आज ही इसने मेरे सामने आकर कैसी-कैसी बातें कही आपको तो मैंने लिख ही दिया था। क्या पढ़ा नहीं!
रनबीर–मैंने पढ़ा, मगर यह कहता है कि मैं अकेला था इसलिए आपके छुड़ाने की सिवाय इसके और कोई तरकीब न देखी कि जाहिर में तुम्हारा दुश्मन और बालेसिंह का दोस्त बनूं!
बालेसिंह–कभी नहीं, यह झूठा है! मैं खूब समझ गया कि जिस पर आप आशिक है यह खुद भी उस पर आशिक हो गया है और चाहता है कि आपकी जान ले।
रनबीर–होगा, मगर मुझे विश्वास नहीं होता!
बालेसिंह–अच्छा एक काम कीजिए, आप अपने हाथ से एक चिट्ठी महारानी को लिखकर पूछिए कि जसवंत तुम्हारे पास गया था या नहीं और तुमने इसकी नीयत कैसी पाई? उस खत को मैं अपने आदमी के हाथ भेजकर उसका जवाब मंगा देता हूं।
रनबीर–अहा, अगर ऐसा करो तो मैं जन्मभर तुम्हारा ताबेदार बना रहूं! भला मेरी ऐसी किस्मत कहां कि मैं उनके पास चिट्ठी भेजूं और जवाब आ जाए! हाय! जिसकी सूरत देखने की उम्मीद नहीं, उसके पास मेरी चिट्ठी जाए और जवाब आवे तो मेरे लिए इससे बढ़के और क्या खुशी की बात होगी!!
बालेसिंह-जरूर जबाब आवेगा, मगर एक बात है–आप उस चिट्ठी में यह भी लिख दीजिएगा कि बालेसिंह ने मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं दी है, बड़े आराम के साथ रखा है, और भाई की तरह मुझको मानता है।
|