उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
बालेसिंह–अब मुझे तुम्हारे ऊपर किसी तरह का शक नहीं है और बेशक तुम्हारी वह बात भी ठीक होगी। इस वक्त तो मुझे बस यही धुन है कि घर पहुंचते ही पहले उस नमकहराम का सर अपने हाथ से काटूं जिसने महारानी के मरने की झूठी खबर सुनाकर मुझे तबाह करना चाहा था।
जसवंत–हां जरूर उसे सजा मिलनी चाहिए जिसमें औरों को डर पैदा हो और आगे ऐसा काम करने का हौसला न पड़े।
जसवंत जानता था कि बालेसिंह का आदमी बिलकुल बेकसूर है, महारानी की चालाकी ने शहर भर को धोखे में डाला था। उसकी कौन कहे, उसने चाहा भी था कि उस बेचारे को बचा दे मगर इस समय उस हरामजादे ने यह सोचकर हां में हां मिला दी कि उसके मारे जाने ही से मेरा रोआब लोगों पर जम जाएगा और मेरे नाम से सब कांपने लगेंगे।
ये दोनों घोड़ों पर सवार हो घर की तरफ रवाना हुए मगर अपने-अपने खयालों में ऐसा डूबे थे कि तनोबदन की सुध न थी, वे बिलकुल नहीं जानते थे कि किधर जा रहे हैं और घर का रास्ता कौन है, कि एकाएक जंगली सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट सुन दोनों चौंके और सर उठाकर सामने की तरफ देखने लगे।
दूर से बहुत से मशालों की रोशनी दिखाई पड़ी जो इन्हीं की तरफ आ रही थी। ये दोनों एक झाड़ी की आड़ में होकर देखने लगे। पास आने से मालूम हुआ कि बहुत से फौजी सिपाही दो पालकियों को घेरे हुए जा रहे हैं जिनके साथ-साथ कई लौंडियां भी कदम बढ़ाए चली जा रही हैं।
जब वे लोग दूर निकल गए, दोनों आदमी झाड़ी से बाहर हुए। बालेसिंह ने कहा, ‘‘जसवंत, बेशक इसमें महारानी होंगी, मगर मालूम नहीं दूसरी पालकी में कौन है?’’
जसवंत–मैं सोचता हूं कि दूसरी पालकी में रनबीर होगा।
बालेसिंह–तुम्हारा खयाल बहुत ठीक है, मगर देखो हम लोग अपने-अपने खयालों में डूबे हुए थे कि रास्ता तक भूल गए, चलो बाईं तरफ घूमो।
दोनों बाईं तरफ घूमे और तेजी से चल पड़े!
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