उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
‘‘मेरी बात सुनकर कालिंदी बहुत घबराई और इधर-उधर मेरी तलाश करने लगी पर मैं वहां कहां था! आखिर उसने मर्दानी पोशाक पहनी, मुंह पर नकाब डाला, और कमंद लगा अपने मकान से पिछवाड़े की तरफ उतर पड़ी तथा बालेसिंह की तरफ चली गई। मैंने भी कुछ टोकटाक न की और उसे वहां से बेखटके चले जाने दिया।’’
वीरसेन की जुबानी यह हाल सुन रनबीरसिंह तो कुछ सोचने लगे मगर महारानी कुसुम कुमारी की विचित्र हालत हो गई। रनबीरसिंह ने बहुत कुछ समझा बुझाकर उसे ठंडा किया।
कुसुम–(वीरसेन से) तुमने उसे जाने क्यों दिया! रोक रखना था, फिर मैं उससे समझ लेती!
रनबीर–नहीं-नहीं, इन्होंने उसे जाने दिया सो बहुत अच्छा किया, नहीं तो इन्हीं को झूठा बनाती और अपने ऊपर पूरा शक न आने देती, अब क्या वह बचकर निकल जाएगी! तुम चुपचाप बैठी रहो, देखो हम लोग क्या करते हैं।
कुसुम–आख्तियार आपको है, जो चाहिए कीजिए, मैं किसी काम में दखल न दूंगी।
रनबीर–(वीरसेन से) अब मैं तुम्हारे साथ बाहर चला चाहता हूं, वहां दीवान साहब को भी बुलाकर कुछ कहूंगा।
बीरसेन–बहुत अच्छी बात है, चलिए मगर अपनी ताकत देख लीजिए।
रनबीर–कोई हर्ज नहीं जब तक बेहोश था तभी तक बेदम था, अब मैं अपना इलाज आप ही कर लूंगा, क्या आज मकान के अंदर घुसकर बैठे रहने का दिन है?
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