उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
बीरसेन–(रनबीर से) आप यह न समझिए कि हम लोग कोई भेद आपसे छिपाते हैं या छिपावेंगे, बल्कि जिस भेद के बारे में आप पूछ रहे हैं वह ऐसा नहीं कहेंगी और बिना किसी के समझाए आप समझ जाएंगे।
रनबीर–तुम भी क्या मसखरापन करते हो, बिना समझाए मैं समझ जाऊंगा!!
बीरसेन–जी हां ऐसा ही है।
कुसुम–खैर तब बहुत कहने-सुनने की कोई जरूरत नहीं, इस बखेड़े को भी तय ही कर डालना चाहिए।
बीरसेन–अच्छा तो...
कुसुम–(अपने आंचल से एक ताली खोल और बीरसेन को देकर) लो तुम जाओ, वहां रोशनी का इतंजाम कर आओ तो हम लोग चलें।
‘‘अच्छा मैं जाता हूं, बहुत जल्द लौटूंगा!’’ कह बीरसेन वहां से उठे और महल की तरफ चले गए। भेद जानने के लिए रनबीर की तबीयत घबड़ा रही थी, इन लोगों की अनोखी बातचीत ने उनकी उत्कंठा और भी बढ़ा दी थी, यहां तक कि थोड़ी देर के लिए भी सब्र न कर सके और बीरसेन के जाने के बाद अधीर हो कुसुम कुमारी का हाथ पकड़ पूछने लगे–‘‘भला कुछ तो बताओ कि क्या मामला है, सुनने के लिए जी बेचैन हो रहा है?’’
कुसुम–अब क्या घबड़ा रहे हैं, दम भर में सब मालूम ही हुआ जाता है, बीरसेन आ लें तो चल के जो कुछ है दिखा देते हैं।
रनबीर–जब तक बीरसेन आवें तब तक कुछ बातचीत तो होनी चाहिए।
कुसुम–तो क्या एक यही बातचीत रह गई है?
लाचार बीरसेन के आने तक रनबीरसिंह को सब्र करना ही पड़ा। जब बीरसेन लौट आए तो दोनों से बोले–‘‘चलिए सब तैयारी हो चुकी।’’ झट रनबीरसिंह उठ खड़े हुए और हाथ थाम कुसुम कुमारी को उठाया। तीनों आदमी महल की तरफ रवाना हुए और बहुत जल्द उस कमरे में पहुंचे जो खास कुसुम कुमारी के बैठने का था। लौंडियां हटा दी गईं और किवाड़ बंद कर दिए गए।
जिस जगह कुसुम कुमारी के बैठने की गद्दी बिछी हुई थी उसी जगह तकिए के पीछे दीवार में एक दरवाजा बना हुआ था। बीरसेन ने उसका ताला खोला। तीनों एक लंबे-चौड़े सजे हुए कमरे में पहुंचे जिसमें दीवारगीरों में मोमबत्तियां जल रही थीं और दिन की तरह उजाला हो रहा था। चारों तरफ दीवारों पर नजर डालते ही रनबीरसिंह चौंके और एकदम बोल उठे, ‘‘वाह वाह! यह क्या तिलिस्म है!!’’
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