उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
धीरे-धीरे वह एक ऐसी झोंपड़ी के पास पहुंचा जिसके पीछे की तरफ छप्पर से जमीन को एक देने वाली लता बहुत ही घनी फैली हुई थी। वह उसी जगह जाकर खड़ा हो गया और पत्तों की आड़ में छिपकर चारों तरफ देखने लगा, जब कोई नजर न आया तो उसने धीरे-धीरे दो-चार दफे चुटकी बजाई। थोड़ी देर बाद उस झोंपड़ी से एक औरत निकलकर उस तरफ आई जिधर वह खड़ा था। उस औरत को देखते ही वह पत्तों की आड़ से बाहर निकला और दोनों ने मैदान का रास्ता लिया।
ये दोनों जब तक गांव की हद से दूर न निकल गए बिलकुल चुप थे, बहुत दूर निकल जाने के बाद यों बातचीत होने लगी–
औरत–मैं बहुत देर से तुम्हारी राह देख रही थी, जैसे-जैसे देर होती थी कलेजा धक-धक करता था।
मर्द–तुम्हारे लिए मैंने अपनी जान आफत में डाल दी, अब देखें तुम मेरे साथ किस तरह निबाह करती हो।
औरत–मेरी बात में कभी फर्क न पड़ेगा, पहले भी कई दफे कह चुकी हूं और फिर कहती हूं कि मैं तुम्हारी हो चुकी, जिस तरह रखोगे रहूंगी मेरी मुराद तुमने पूरी की, अब मैं किसी तरह तुम्हारे हुक्म से बाहर नहीं हो सकती।
मर्द–अभी मैं कैसे कहूं की तुम्हारी मुराद पूरी हो गई।
औरत–(चौंककर) क्या कुसुम कुमारी हाथ नहीं लगी।
मर्द–कुसुम तो हाथ लग गई मगर मेरे कई साथी मारे गए और अभी न मालूम क्या-क्या होगा!
औरत–अगर कुसुम किले के बाहर हो गई तो अब हम लोगों को भी कुछ डर नहीं है।
मर्द–कुसुम को तो हमारा एक दोस्त लेकर दूर निकल गया, मगर फिर भी हम अपने को तब तक बचा हुआ नहीं समझ सकते जब तक यह न सुन लें कि चंचलसिंह पर कोई आफत न आई। (हाथ का इशारा करके) देखो उसी पेड़ के नीचे वे दोनों घोड़े मौजूद हैं जिन पर सवार होकर हम और तुम भागेंगे और जहां तक जल्द हो सकेगा पटना पहुंच कर अपनी जान बचावेंगे मगर देखों कालिन्दी, अब पटना पहुंचकर कुसुम को अपने हाथ से मारकर अपनी प्रतिज्ञा जल्द पूरी कर लो, जब तक वह जीती रहेगी हम लोग निश्चित नहीं हो सकते।
कालिंदी–घर पहुंचते ही में अपनी प्रतिज्ञा पूरी करूंगी।
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