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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

बीरसेन को पहचानते ही डर के मारे उसकी अजीब हालत हो गई, थर-थर कांपने लगा और कुछ बोल न सका। उसके पास एक गठरी थी जिसे उसी जगह फेंक कर भागा, मगर बीरसेन के हाथ से बचकर न जा सका। इन्होंने लपक कर उसे पकड़ लिया और गठरी समेत अपने मकान की तरफ लौटे तथा फाटक पर पहुंच कर खड़े हो गए जहां कई सिपाही नंगी तलवार लिए पहरा दे रहे थे और कई भीतर की तरफ पहरा बदलने के लिए तैयार हो रहे थे।

बीरसेन ने उस चोर को एक सिपाही के हवाले किया और दूसरे को गठरी खोलकर देखने का हुक्म दिया। सिपाही ने चौंक कर कहा, ‘‘हुजूर इसमें तो जड़ाऊ गहने हैं!’’

बीरसेन–हैंऽ! जड़ाऊ गहने!!

सिपाही–जी हां।

बीरसेन–इधर तो लाओ, देखें!

फाटक पर रोशनी बखूबी हो रही थी, बीरसेन ने उन गहनों को देखते ही पहचान लिया कि ये कालिन्दी के हैं। इसके बाद उस चोर पर गौर किया तो मालूम हुआ कि यह उन सिपाहियों में से हैं जो चोर फाटक के पहरेदार चंचलसिंह के मातहत हैं। बहुत थोड़ी देर खड़े रहकर बीरसेन कुछ सोचते रहे, इसके बाद गठरी और चोर को हिफाजत से रखने के लिए ताकीद कर दस सिपाहियों को अपने साथ ले चोर फाटक की तरफ रवाना हुए और अपने पहरे वालों से कहते गए कि–बहुत जल्द और बीस सिपाहियों को चोर फाटक पर भेजो।

बीरसेन ने चोर फाटक पहुंचकर दस-बारह सिपाहियों को बैठे और चंचलसिंह को टहलते पाया, ललकार कर पूछा, ‘‘क्यों जी चंचलसिंह! क्या हो रहा है?’’

चंचल–जी कुछ नहीं, देखिए पहरे पर मुस्तैद हूं!

बीरसेन–तुम्हारे मातहत के सिपाही कहां है?

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