धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
धर्म और प्रथायें
पुरानी रीति-रिवाजें मानने चाहिए या नहीं! इस प्रश्न का विवेचन करते हुए आपको प्राचीनता से राग-द्वेष नहीं होना चाहिए। बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो प्राचीनकाल से ऐसे रूप में विद्यमान हैं जो अब भी वैसी ही उपयोगी हैं जैसी कि पूर्व समय में थीं, किन्तु बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो बहुत पीछे की हो गई हैं और उनकी उपयोगिता नष्ट हो चुकी है। इनकी मरी हुई लाशों को छाती से चिपकाए रहने से कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा वरन् सड़न और दुर्गन्ध ही बढ़ेगी इसलिए आपका दृष्टिकोण यह नहीं होना चाहिए कि पुरानी बातों के अन्ध-विश्वासी रहेंगे या हर बात में उसका विरोध ही करेंगे। आप तो हर एक कार्य विचार और प्रथा को इस कसौटी पर कीजिए कि वह देश, काल, पात्र के लिए भी उपयोगी है या नहीं। यदि उपयोगी प्रतीत हो तो ऐसा मत सोचिए कि नवीन विचार वाले हमें क्या कहेंगे, हमारा उपहास करेंगे, किन्तु यदि पुराने विचार अब की परिस्थितियों से टक्कर न खांय तो उसे निस्संकोच त्याग दीजिए। इस प्रथा को कायम रखने के लिए यह विचार बिल्कुल निरर्थक है कि अमुक पुस्तक में इसका उल्लेख है या अमुक महापुरुष ने इस बात का आदेश किया था। उन धर्म पुस्तकों का या उन महापुरुषों के प्रति आपके अन्दर अवज्ञा के भाव नहीं होने चाहिए वरन् आदर करना चाहिए कि अपने समय में अपने समाज के लिए कैसी सुन्दर व्यवस्था का उन्होंने निर्माण किया था आज उनकी बातें समय से पीछे पड़ गई हैं तो उनसे हम मोह क्या करें? क्या उन महापुरुषों ने अपने में पूर्व प्रचलित प्रथाओं के साथ मोह किया था। यदि करते तो उनके महत्वपूर्ण मन्तव्य जो हमें आज सुनाई पड़ते हैं प्रकट ही न हुए होते।
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