धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
धर्म संकट
अनेक बार मनुष्य के जीवन में ऐसे अवसर उपस्थित होते हैं जब वह धर्म संकट में पड़ जाता है। सामने दो ऐसे मार्ग आ जाते हें जो दोनों ही अरुचिकर होते हैं, उनमें से किसी को भी करने की इच्छा नहीं होती, फिर भी ऐसी परिस्थिति सामने होती है कि एक को किए बिना गुजारा नहीं (1) एक ओर खाई दूसरी ओर खन्दक, (2) भई गति साँप छछूँदर केरी, (3) मुँह में भरा गरम दूध न पीते बने न उगलते, (4) मूसल निगलो या वृत्ति छोड़ो आदि अनेक कहावतें जन समाज में प्रचलित हैं जो यह सूचित करती हैं कि ऐसी द्विविधायें अक्सर सामने उपस्थित होती हैं और उनके हल ढूँढने में बुद्धि विचलित हो जाती है।
धर्म ग्रन्थ, लोक मत, उदाहरण, अभिवचन और भावुकता के आधार पर कुछ निर्णय करते हुए मस्तिष्क चकरा जाता है। मान लीजिए एक सिंह गाँव में घुस आये और ग्रामवासियों को खाने लगे, ऐसे समय में धर्म ग्रन्थ टटोलने पर परस्पर विरोधी मन्तव्य प्राप्त होते हैं। एक स्थान पर लिखा होगा कि- ''किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। सभी जीव ईश्वर के हैं, जिस प्राणी को हम बना नहीं सकते उसे मारने का हक नहीं है।'' दूसरे स्थान पर ऐसा लिखा होगा कि- ''आततायी को मार डालना चाहिए।'' दोनों ही व्यवस्थाऐं एक-दूसरे के विरोध में हैं, धर्मग्रन्थ के अवलम्बन करने पर जो धर्म संकट उपस्थित हुआ उसका निराकरण हो सकना बहुत कठिन है। मित्रों से पूछा जाय तो वे भी अपनी विचार मर्यादा के अनुसार उत्तर देंगे। जैनी मित्र से पूछें तो कहेगा- 'चाहे जो होता रहे सिंह पर हाथ नहीं छोड़ना चाहिए।' वेदान्ती कहेगा- 'संसार मिथ्या है, स्वप्न समान है, तुम तो देखते मात्र रहो।' गीता धर्म वाला कहेगा- 'कर्तव्य पालन करो, आततायी को मारो, सिंह है या गाय इसकी विवेचना मत करो।’ पीड़ित गाँववासी सिंह को अविलम्ब मार डालने की पुकार करेंगे। इस प्रकार लोक मत भी एक नहीं मिल सकता, कबूतर खाने में तरह-तरह की चिड़ियाँ अपनी-अपनी बोली बोलती हैं, किसकी बात बुरी कही जाय, किसकी अच्छी? कोई वस्तु चाहे कितनी ही अच्छी क्यों न हो, उसके सब लोग समर्थक नहीं हो सकते।
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