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धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704
आईएसबीएन :9781613012796

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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।


मनुष्य का आचार-विचार जैसा है वह वैसे लोगों को ही अपने साथ सम्बन्धित कर लेता है। 'चोर-चोर मौसेरे भाई’ बन जाते हैं। नशेबाजों की उक्ति है कि 'दम भाई सो निज भाई।’ इसी प्रकार भले-बुरे, चोर, साधु, बालक, वृद्ध, हर तरह के मनुष्य अपनी समानता का संगठन करते हैं। इस संगठन से अनेक गुना लाभ है। अलग-अलग मनुष्य थोड़ी लकड़ी लाकर अलग-अलग जलाकर शीत निवारण करें तो बहुत खर्च होने पर थोड़ा-थोड़ा लाभ होगा किन्तु यदि वे सब अपनी लकड़ियों को इकट्ठा करके एक ही स्थान पर सम्मिलित रूप से जलावें तो आग तीव्र जलेगी और सबका शीत निवारण हो जायगा। संगठन में ऐसी ही महत्वपूर्ण विशेषता होने के कारण लोग अपने समान विचार के लोगों के साथ रहना ठीक समझते हैं। इसलिए यह धर्म है। हर एक सम्प्रदाय का कहना है कि हमारे धर्म में शामिल होने से मुक्ति, स्वर्ग, जन्नत, बहिस्त, हैविन आदि की प्राप्ति होगी। धर्माचार्यों का यही प्रयत्न रहता है कि उनके सम्प्रदाय में अधिक लोग शामिल हों। वे अपने सम्प्रदाय में दीक्षित व्यक्ति को धर्मात्मा घोषित करते हैं कारण यही है कि एक समान विचार के लोगों का एक सम्बन्ध सूत्र में बँधकर रहना एक-दूसरे लिए बहुत ही लाभदायक है। जो सबसे अलग रहता है, दूसरों से कम सम्बन्ध रखता है, उसे लोग अज्ञानी, स्वार्थी, निर्मोही, हृदयहीन, निष्ठुर कहते हैं एवं जो समूह में अत्यन्त लिप्त होकर किन्हीं व्यक्तियों से अति ममता जोड़ लेता है उसे मोहग्रस्त, माया-बन्धित कहते हैं। हमें समूहबद्ध रहना चाहिए सद्विचार बालों को समता वाले व्यक्तियों के साथ सम्बन्धित रहना चाहिए। यह धर्म है। अति और अभाव की दशा में स्वार्थी अथवा मोहग्रस्त कहा जाता है, जो अधर्म के ही दूसरे नाम हैं।

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