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धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704
आईएसबीएन :9781613012796

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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।


स्वराज्य जैसे सर्वोपयोगी जीवन तत्व के भी विरोधी आज अनेक भारतीय दृष्टिगोचर हो सकते हैं। कसाई के कुत्ते अपने टुकड़े से अधिक उत्तमता और किसी वस्तु में नहीं देख सकते। इस प्रकार लोक मत भी किसी बात का सर्ब सम्मति से समर्थन नहीं कर सकता, चाहे वह कितनी ही उत्तम हो वैसे ही बुरी से बुरी बात का पक्ष लेने वाले लोग मिल जाते हैं। उदाहरण तो किसी भी बात के अनुकूल मिल सकते हैं। साधारण मनुष्यों की बात छोड़िए। बड़े से बड़े में बुराइयाँ ढूँढ़ी जा सकती हैं। ब्रह्माजी अपनी पुत्री पर आसक्त होकर उसके साथ बलात्कार करने को तैयार हो गये, चन्द्रमा गुरु पत्नी पर डिग गया। इंद्र का अहिल्या के साथ कुकर्म करना प्रसिद्ध है। विष्णु ने जालन्धर की स्त्री का छलपूर्वक पतिव्रत नष्ट किया, व्यासजी का मछुए की लड़की पर, विश्वामित्र का मेनका वेश्या पर आसक्त होने का वर्णन मिलता है। रामायण पढ़ने वालों ने नारद मोह की कथा पढ़ी होगी कि वे भक्ति भाव छोड्कर किस प्रकार विरह के लिए व्याकुल फिरे थे। राक्षसों का पक्ष, समर्थन करने वाले एवं सहायक शुक्राचार्य और कौरवों के सहायक द्रोणाचार्य जैसे विद्वान् थे। बलि को वामन भगवान ने छला, बालि को राम ने आड़ में छिपकर अनीतिपूर्वक मारा, इस प्रकार बड़े-बड़ों में जहाँ दोष हैं, वहाँ अत्यन्त छोटी श्रेणी के व्यक्ति भी उच्च चरित्र का पालन करते देखे जाते हैं। इतिहास एक समुद्र है। इसमें हर बुरे-भले कार्य के पक्ष में तगड़े उदाहरण मिल सकते हैं, फिर इनमें से किसका अनुकरण किया जाय? दुर्भिक्ष में अन्न न मिलने पर प्राण जाने का संकट उपस्थित होने पर विश्वामित्र ने चाण्डाल के घर से माँस चुराकर खाया था और उषस्ति ने अन्त्यज के जूंठे उड़द खाकर प्राण रक्षा की थी, किन्तु विलोचन का ऐसा उदाहरण भी मौजूद है कि अभक्ष खाने का अवसर आने पर उसने प्राणों का परित्याग कर दिया था। इनमें से किसका पक्ष ठीक माना जाय किसका गलत? यह निर्णय करना साधारण बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है।

भिवचनों का भी यही हाल है कि विद्वान् एक सिद्धान्त का प्रतिपादन बड़े प्रचण्ड तर्कों से करता है किन्तु दूसरा उससे भी उग्र प्रमाणों द्वारा उस सिद्धान्त का खण्डन कर देता है। प्रजातंत्र, कम्युनिज्म, फासिज्म, पूँजीवाद आदि के प्रतिपादन में जो तर्क आधार उपस्थित किए जाते हैं, उनके बीच में से सच्चाई निकालना साधारण प्रज्ञा का काम नहीं है। फिर भाबुकता का तो कहना ही क्या? आँखों के सामने जो असाधारण अनुभूति करने बाले प्रसंग आते हैं, उनसे तरंगित होकर हृदय एक प्रवाह में बह जाता है और छोटी घटना को भी अत्यन्त महान् समझकर उसके निराकरण में बड़े से बड़ा कार्य करने को तैयार हो जाता है फिर चाहे उतने ही कार्य में अनेक गुने महत्वपूर्ण कार्य छूट जावें।

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