धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
त्यागी, साधु पुरुष अन्य
लोगों को सुखी बनाने के लिए अपना जीवन अर्पण कर देते हैं, वे स्वयं
कष्टपूर्वक निर्वाह करते हुए भी अन्य लोगों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते
हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि हमारे अकेले के कष्ट से यदि अनेक प्राणियों
को सुख मिलता है, तो वही अधिक लाभ है। वीर क्षत्राणियाँ अपने पतियों को
युद्ध-भूमि में प्रसन्नतापूर्वक भेज देती हैं और वैधव्य को स्वीकार कर
लेती हैं, क्योंकि सुहाग सुख की अपेक्षा कर्तव्य को वे ऊँचा मानती हैं।
सती-साध्वी महिलाऐं सतीत्व की रक्षा के लिए प्राणों पर खेल जाती हैं। उनका
विश्वास होता है कि शरीर की अपेक्षा सतीत्व का महत्व अधिक है। श्रेष्ठ
पुरुष अपमान की जिन्दगी से आबरू की मौत पसन्द करते हैं क्योंकि वे जिन्दगी
से आबरू को बड़ा मानते हैं।
दार्शनिक यीगल ने अपने
ग्रन्थों में धर्म की व्याख्या करते हुए ''अधिक लोगों के अधिक लाभ'' को
प्रधानता दी है। जिस काम के करने से समाज की सुख-शान्ति में वृद्धि होती
हो उसके लिए थोड़े लोगों को कुछ कष्ट भी दिया जा सकता है। करोड़ों गरीबों को
भोजन देने के लिए यदि पूँजीवादी व्यवस्था बदलनी पड़े और उससे थोड़े
पूँजीपतियों को कुछ कष्ट होता हो तो वह सहन करना पड़ेगा। पशु-बध बन्द होने
से कसाई के कुत्तों को भूखा रहना पड़े तो उसे बर्दास्त कर लिया जायगा। बड़े
कष्ट को निवारण करने के लिए छोटा कष्ट देना पड़े तो वह एक सीमा तक क्षम्य
है। एक मनुष्य भूखा मर रहा हो और दूसरा आवश्यकता से अधिक भोजन लादे फिरता
हो तो भूखे की प्राण रक्षा के लिए दूसरे से थोड़ा अन्न बलपूर्वक छीन करके
भी दिया जा सकता है।