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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


चन्दमाधव को उसने लिखा :

प्रिय श्री चन्द्रमाधव,
आपके दोनों पत्र मिल गये। भुवन दा के दो समाचार आपने दिये, उनके लिए आभारी हूँ। आपने मुझे उन्हें पत्र लिखने को कहा है, पर मेरे पास अपनी ओर से अभी कुछ लिखने को नहीं है और आपने जो बातें लिखी हैं, उनके बारे में कुछ कहने का अधिकार अगर भुवन दा समझेंगे तो स्वयं मुझे लिख ही देंगे। तब तक मैं इसके सिवा क्या समझ सकती हूँ कि उनके जीवन में हस्तक्षेप करने का मेरा कोई अधिकार नहीं है? वह बड़े हैं, और मेरे श्रद्धेय हैं, इतना मेरे लिए काफ़ी है।

आप शीघ्र यहाँ आने वाले हैं, आइये। मैं अभी यहीं हूँ, कुछ दिन तो रहूँगी ही। काम की तलाश करूँगी।

आपकी
गौरा

पत्र भेज कर वह फिर एकान्त में बैठकर चन्द्र के दोनों पत्र उलट-पलट कर देख गयी; एक-आध स्थल पर उसने कोई वाक्य पढ़ा पर वैसे लगातार पढ़ नहीं सकी; अक्षर उसकी आँखों के आगे तैर गये। उसने पत्र हटा दिये और संगीत की एक कापी उठा कर जल्दी-जल्दी उलट कर एक जगह से खोली, उसके पन्ने पर अपने हाथ की लिखावट पर आँखें जमा दी। लेकिन उसकी अपनी लिखाई भी तैर गयी, सहसा दो बड़ी-बड़ी बूँदें उस पर पड़ीं और लिखाई फैल गयी। गौरा ने आँचल से उसे पोंछा, पर उससे फैली हुई स्याही का एक लम्बा धब्बा कागज़ पर बन गया। सहसा गौरा बिल्कुल अवश हो गयी और कापी पर बाँहें और सिर टेक कर फफक कर रो उठी।

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