उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
रेखा, तुम
बार-बार कह देती हो कि तुम मुझसे बड़ी हो, पर यह भी एक कवच है तुम्हारा।
उम्र में भी तुम मुझसे दो-तीन बरस छोटी तो हो ही; वैसे भी किस बात में
बड़ी हो? यों मैं तुम्हारा सम्मान करता हूँ, सदा करूँगा, तुम्हारे पैर
चूमूँगा, यह बात दूसरी है; पर कौन-सा अनुभव तुम्हें इतनी दूर ऊपर उठा ले
जाता है? मैं बच्चा नहीं हूँ, रेखा, दो बच्चों का पिता हूँ : क्लेश तुम ने
भोगा है अवश्य, पर मैं उससे अछूता होऊँ यह नहीं है। और विवाह के बाद मैं
यूरोप घूमा हूँ-युद्ध के आसन्न संकट से निराश, नीति-हीन प्रतिमान-हीन
यूरोप-और उसमें जो अनुभव मैंने पाये हैं वे-क्षमा करना-एक विवाह और एक
विच्छेद से कहीं अधिक तीखे, कटु और पका देने वाले हैं...तभी तो, लौटकर फिर
मैं गृहस्थी में खप न सका; घर गया, कुछ रहा; हाँ, पत्नी के साथ सोया भी और
उससे एक बच्चा भी पैदा किया; पर इन सब अनुभवों ने उस गर्म कड़ाहे को और
तपाया ही, उस तेल को और तपाया ही जिसमें जलकर मैं आज वह बना हूँ जो मैं
हूँ। तुमने एक बार कहा था कि तुम्हारे आसपास दुर्भाग्य का एक मण्डल है, पर
मैं देखता हूँ, जानता हूँ, अनुभव करता हूँ कि तुम मेरी आत्मा के घावों की
मरहम हो, तुम्हारा साया मेरे लिए राहत है, और-यदि तुम वह मुझे दे सको
तो-तुम्हारा प्यार मेरे लिए जन्नत है...मैं बड़ा लालची रहा हूँ, जीवन से
मैंने बहुत माँगा है, छोटी चीज़ कभी नहीं माँगी, बड़ी से बड़ी माँगता आया
हूँ, मैं सच कहता हूँ कि इससे आगे मेरी और कोई माँग नहीं है, न होगी-यह
मेरी सारी चाहनाओं, कल्पनाओं, वासनाओं, आकांक्षाओं की अन्तिम सीमा है,
मेरे अरमानों की इति, मेरी थकी प्यासी आत्मा की अन्तिम मंजिल। रेखा,
तुममें असीम करुणा है-तुम तत्काल प्यार नहीं दे सकती तो करुणा ही दो,
मुक्त करुणा, फिर उसी में से प्यार उपजेगा।
मैं लालची हूँ, मैं
स्वार्थी भी हूँ। पर इतना स्वार्थी नहीं, रेखा, कि इस बात को मैंने
तुम्हारी ओर से न सोचा हो। तुम अकेली हो, मुक्त हो, नौकरियाँ करती हो। पर
कहाँ तक? किसलिए? मुक्ति आज नारी चाहती है, चलो ठीक है, यद्यपि आज मुक्त
कोई नहीं है और है तो इस महायुद्ध के बाद शायद वह भी न रहेगा-पर नौकरी तो
कोई नहीं चाहता? मुक्ति के लिए नौकरी, नौकरी के लिए मुक्ति, दोहरा धोखा
है। सिक्योरिटी हर कोई चाहता है, और उसीमें मुक्ति है। पुरुष के लिए भी,
और स्त्री के लिए और भी अधिक।
|