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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


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भुवन जी, चन्द्रमाधव जी आप के मित्र हैं और उनका आपका परिचय बहुत पुराना है। ऐसे में मैं कोई कटुता लाना नहीं चाहती, और जिस स्थिति में फँस गयी हूँ उसके कारण लज्जा और संकोच के मारे गड़ी जा रही हूँ। फिर भी मैंने जो लिखा कि चन्द्रमाधव जी के साथ कहीं न जा सकूँगी उसके स्पष्टीकरण में कुछ तो कहना ही होगा। चन्द्रमाधव जी ने मुझे लखनऊ बुलाया था, मैं दोपहर को पहुँची तो पहले हम लोग काफ़ी हाउस गये। वहाँ आपके विषय में बातें होती रही, मैंने लक्ष्य किया कि उनकी बातों में बार-बार एक छिपी ईर्ष्या व्यक्त हो उठती है जिसका कारण न समझ सकी। फिर उन्होंने कहा, “यहाँ से रेज़िडेंसी चला जाये।” बाहर आँधी के आसार थे-आजकल धूल के कैसे झक्कड़ आते हैं, आप तो जानते हैं-मैंने आपत्ति की तो बोले, “रेखा जी, तुम ज़रा-सी आँधी से डरती हो?” वह मुझे सदा आप कहते हैं, आप और तुम की खिचड़ी कुछ अद्भुत लगी पर शायद दिल्ली का मुहावरा है इसलिए मैंने ध्यान न दिया, यह भी न लक्ष्य किया कि उनका स्वर आविष्ट है-बाद में यह भी याद आया।

हम लोग रेज़िडेंसी पहुँचे तो बड़े ज़ोर की आँधी आयी। वह ज़ोर से हँसे और बोले, “ठीक है, बिल्कुल मौजूँ है।” तब मैंने सँभल कर वापस चलने को कहा, पर उन्होंने कहा, “यहाँ तक आयी हो तो मेरी बात सुनकर जाओ।”

भुवन जी, आप समझदार हैं और मैं स्त्री हूँ। पूरी बात कहने की आवश्यकता भी नहीं है और उसमें व्यर्थ सब को ग्लानि ही होगी; आपको इस कीचड़ में खींचना भी न चाहिए। संक्षेप में कहूँ कि चन्द्रमाधव ने अपना प्रेम निवेदन किया-जबानी भी और एक लिखा हुआ पत्र देकर भी। पत्र मैंने वहाँ नहीं पढ़ा, उनकी बातों से ही स्तब्ध और अवाक् हो गयी क्योंकि मैं उन्हें अपना हितैषी, मित्र और सहायक मानती थी - उस नाते उनकी बहुत कृतज्ञ भी हूँ - यह नहीं जानती थी कि उनके हृदय में कैसे भाव भरे हैं। मैं वहाँ से तत्काल एक शब्द भी कहे बिना लौट आयी; वह वहीं रहे, पीछे मैंने सुना कि रो रहे हैं पर मैं रुकी नहीं, फिर ताँगा पाकर मैं सीधी स्टेशन पहुँची, काफ़ी पीने बैठी तो ध्यान आया कि उनका पत्र मेरे हाथ में है। वह मैंने नहीं पढ़ा। फिर वेटिंग रूम में बैठी रही, रात की गाड़ी से लौट आयी।

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