उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
इसके साथ का पत्र, चन्द्रमाधव की ओर से रेखा को :
रेखा,
मैंने
अपनी ही मूर्खता और अपटुता से तुम्हें खो ही दिया, तो अब तुम से यही
प्रार्थना करता हूँ कि अब मुझसे कोई सम्पर्क न रखना; मेरा मुँह न देखना, न
अपना मुँह मुझे दिखाना। लखनऊ आना बेशक; जहाँ तुम्हारी इच्छा हो आना-जाना,
पर कभी मुझसे अचानक मुठभेड़ हो ही जाये तो मुझे पहचानना मत, बुलाना-बोलना
मत - कहीं रहो, खुश रहो, पर मेरे जीवन से निकल जाओ, बस!
यह नहीं कि मैं तुम्हें चाहता नहीं, या कि उस पत्र में लिखी बातें सच नहीं
हैं। पर-बस! और कुछ लिखने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है।
चन्द्र
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