| उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    “यही मैं सोच रहा था कि इन्हें कौन पढ़ता होगा। और सबके नीचे मैंने देखा,
    'मेन ओनली' दबा पड़ा है।” 
    
    रेखा हँस पड़ी। “हाँ! वह तो स्वाभाविक है। स्त्रियों की दिलचस्पी किस चीज़
    में है? इन 'मेन ओनली'। यह यहाँ का स्थायी मज़ाक है।” 
    
    एक कुरसी खींच कर वह बैठ गयी। “अच्छा, अब बताइये, यहाँ क्या-क्या किया
    जाएगा-आपका क्या प्रोग्राम है?” 
    
    “आप ही प्रोग्राम बनाइये।” 
    
    तय
    हुआ कि उस दिन रेखा आराम करेगी, तीसरे पहर अगर भुवन आ जाये तो वह घूमने
    चलेगी - अगर भुवन को अवकाश है। लेकिन अभी तत्काल चलकर काफ़ी तो पी ही
    जाये। 
    
    दोनों नीचे उतरे। भुवन ने देखा, रेखा ने कपड़े बदल लिए थे।
    गाड़ी में वह रंगीन साड़ी पहने थी, अब फिर सफ़ेद रेशम पहन लिया था। भुवन
    को ध्यान आया कि रेखा को उसने रंगीन साड़ी कम ही पहने देखा है, पर सफ़ेद
    पहने तो कभी देखा ही नहीं, सफ़ेद वह पहनती है तो रेशम, जो वास्तव में
    सफ़ेद नहीं होता, उसमें हाथी दाँत की-सी, या मोतिये के फूल-सी, या पिसे
    चन्दन-सी एक हल्की आभा होती है...। यों तो शुभ्र श्वेत भी ऐसा होता है कि
    पहननेवाले को दूर अलग ले जाता है, पर यह रेशमी सफ़ेद तो और भी दूर ले जाता
    है, दूर ही नहीं, एक ऊँचाई पर भी; रेखा मानो उसके साथ चलती हुई भी एक अलग
    मर्यादा से घिरी हुई चल रही है। 
    
    रेखा ने कहा, “क्या सोच रहे हैं, भुवन जी?” 
    
    “ऊँ-कुछ नहीं। आपकी बात सोच रहा था-नहीं, कुछ सोच नहीं रहा था, केवल आपको
    देख रहा था।” 
    			
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