उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन ने धीरे-से कहा, “रेखा जी, आपका इस वक्त का आविष्ट स्वर मुझे तो
अनुपस्थित नहीं लग रहा है।”
“मैं!”
रेखा कुछ रुक गयी। फिर मुस्करा कर बोली, “भुवन जी, आप चाहें तो मैं भी
ड्राइंग-रूम वाली बातों का कल खोल दे सकती हूँ-आप नहीं जानते कि मेरे पास
कितनी बड़ी टंकी उस बँधे पानी की जमा है! लेकिन आपका समय मैंने माँगा था,
तो उसके लिए नहीं।” वह फिर गम्भीर हो गयी। “असल में मेरे भी दो पहलू
हैं-एक चरित्रवान्, प्रकृत, मुक्त; एक सभ्य और चरित्रहीन।”
“रेखा
जी, यों पहलू तो हर किसी के चरित्र में होते हैं, पर चरित्र को इस तरह
डिब्बों में बाँटना तो बड़ा ख़तरनाक है - व्यक्ति को एक और सम्पूर्ण होना
चाहिए - यह विभाजन तो ह्रास की भूमिका है।”
“है। मैं जानती हूँ।
और सभ्यता जो ह्रासोन्मुख हो जाती है वह किसलिए? कि समर्थ प्रकृत चरित्र
सभ्यता के पोसे हुए पालतू चरित्र के नीचे दब जाता है - व्यक्ति चरित्रहीन
हो जाता है। तब वह सृजन नहीं करता, अलंकरण करता है। नये बीज की दुर्निवार
शक्ति से जमीन फोड़ कर नये अंकुर नहीं फेंकता, पल्लवित नहीं होता; झरे फूल
चुनता है, मालाएँ गूँथता है, मालाओं से मूर्तियाँ सजाता है। जब मूर्ति पर
मालाएँ सूख जाती हैं। तब हमें ध्यान होता है कि सभ्यता तो मर चली - पर
वास्तव में मरना तो वहाँ आरम्भ हुआ है जहाँ हमने झरे फूल का सौन्दर्य
देखना शुरू किया - डाल से टूटे फूल का!”
रूपक को अपने सामने मूर्त करते हुए भुवन ने कहा, “उस समय भी हम वृक्ष की
ओर वापस जा सकते हैं-अंकुर की ओर।”
“हाँ,
अगर वह हमारी उपेक्षा से सूख न गया हो। पर आज के हम सभ्य लोग अभी उतने
अभागे नहीं है : अभी हम में झरे फूल भी हैं, जो आदृत हैं और गहरी जड़ें भी
हैं जो नये अंकुर फेंकेंगी लेकिन जिनकी कद्र नहीं है। यही मैं कह रही
थी-दो पहलुओं की बात।”
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