उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
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पब्लिक स्थलों पर प्राइवेट चेहरा रखा जा सकता है ज़रूर, और प्रीतिकर भी होता है, पर उसे देखने के लिए पब्लिक स्थलों से खदेड़ा जाना कोई पसन्द नहीं करता।
जन्तर-मन्तर में इधर-उधर भटकते, इमारतों के बीच में से कई प्रकार की आकृतियाँ बनाते और सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते रेखा और भुवन बीच में आकर रुक गये थे, सूर्य डूब गया था और मैले लाल आकाश का रंग नीचे पानी में और भी मैला होकर प्रतिबिम्बित हो रहा था।
“ऊपर चलेंगी?”
“हाँ।”
दोनों सीढ़ियाँ चढ़ गये। ऊपर हवा थी। पास-पास खड़े होकर दोनों पश्चिमी क्षितिज को देखते रहे।
सहसा रेखा ने कहा, “चलिए अब।”
भुवन ने कुछ विस्मय से उसकी ओर देखा-इतनी जल्दी क्यों?
“यहाँ भी तो बन्द होने का समय होता होगा, यहाँ भी।”
भुवन समझ गया। उसने कहा, “नहीं, यहाँ सूचना की घंटी बजती है।”
लेकिन उससे क्या? जाने का निर्देश है, घंटी का हो, खड़ी बोली का हो! उससे पहले ही...।
रेखा ने क्षीणतर आग्रह से कहा, “चलिए।”
“अच्छा तनिक और रुक जाइये, सान्ध्य तारा देखकर चलेंगे।”
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