उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
और भुवन - वह डाक्टरेट कर
चुका है, वैज्ञानिक रिसर्च में नाम पा रहा है, वय में उससे बड़ा है, और
यहाँ बैठकर बालू के घर बना रहा है और मुग्ध हो सकता है...। ईर्ष्या का कोई
सवाल नहीं है - ईर्ष्या क्या होगी - पर क्यों उसे उस सुरक्षा और स्नेह में
भी वह सम्पूर्णता, वह मुक्ति नहीं मिली - क्यों, क्यों, क्यों...।
भुवन
ने अपने काम में लगे-लगे ही पूछा, “मिस राबिनसन-रेखा जी, कलकत्ते में आप
बचपन में जहाँ रहीं, वहाँ बालू थी? लेकिन वहाँ तो नदी के किनारे कीचड़
होता है-”
क्यों उसके विचार रेखा के विचारों के समान्तर चल रहे
हैं जब वह खेल में डूबा है, क्यों वह छूता है उस दुखते स्थल को जिसे रेखा
छिपा लेना चाहती है। सब की दृष्टि से, सबसे अधिक इस भुवन की दृष्टि से जो
इतना भोला है, जो केवल खुली हँसी है, जाड़ों की धूप की तरह खिली हुई हँसी
- नहीं, वह अपनी परछाईं नहीं पड़ने देगी यहाँ पर, वह चली जाएगी।
उसने मुँह ऊपर कर लिया कि आँखों में उमड़ते आँसू बाहर न बह आयें।
भुवन कहता गया, “नहीं, कलकत्ता अच्छा नहीं है। इस बालू के टापू के मुकाबले
में कोई जगह अच्छी नहीं है। लीजिए आपका घर तैयार हो गया!”
अब
की बार भी उत्तर न पाकर भुवन ने विस्मय से उधर देखा। रेखा आकाश की ओर मुँह
उठाये निर्निमेष बैठी थी, खेल से बहुत दूर। अचकचा कर भुवन खड़ा हुआ; मोटर
की मुड़ती रोशनी के पलातक आलोक में उसने सहसा चौंक कर और लजा कर देखा,
रेखा की आँखों में आँसू हैं। उसके हाथ अनैच्छिक गति से रेखा के आँसू
पोंछने को हुए, पर फिर उसे ध्यान हुआ कि बालू से सने हैं, और वे अनिश्चित
से अध-बीच रुक गये। सहसा किंकर्तव्यविमूढ़ करुणा में भरा हुआ वह झुका और
रेखा की गीली पलकें उसने चूम ली।
|