उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“सच?” रेखा का चेहरा खिल आया। “मैं राज़ी हूँ। पर चलिए, पहले आपको कुछ
खिला दूँ। मैं खिलाऊँगी-स्टेशनों पर मेरा राज है।”
“लेकिन मैं तो खा आया।”
“ग़लत बात है। खाकर आते, तो या तो पहुँचते नहीं, या पहले आते। ठीक वक़्त
पर आये तो मतलब है कि खाना सामने छोड़ आये हैं।”
“यह तर्क मेरी समझ में नहीं आया।”
“न
आये। यह स्त्री-तर्क है। इसके आगे विज्ञान नहीं चलता। चलिए। रास्ते में
गाड़ी का पता भी करते चलेंगे। और टिकट वापस करके नया लेना होगा।”
गाड़ी
सुबह साढ़े चार बजे जाती थी। टिकट भुवन ने वापस कर दिया; नया टिकट रात
बारह के बाद मिलेगा। नयी तारीख हो जाने पर, क्योंकि रेखा इण्टर का सफ़र
करती थी, सेकेण्ड होता तो तभी मिल जाता।
कुछ खाकर और काफ़ी पीकर
दोनों रिफ्रेशमेन्ट रूम से निकले तो रेखा ने कहा, “मुझे जनाने वेटिंग रूम
में जाने को मत कहिएगा। और जहाँ कहें-प्लेटफ़ार्म पर घूमने को, बेंच कर
बैठने को, आगे बजरी पर बैठने को, पुल पर चढ़कर रेलिंग से झाँकने को-जो
कहेंगे सब करूँगी!”
भुवन ने कहा, “टहलेंगे।”
पुल से पार
एक अपेक्षाकृत सूने प्लेटफ़ार्म पर दोनों टहलने लगे। अभी डेढ़ घंटे बाद
टिकट मिलेगा; गाड़ी तीन बजे प्लेटफ़ार्म पर आ लगेगी, तब उसमें बैठा जा
सकता है।
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