उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
अब की बार भुवन ने कहा, “ज़रा पेंसिल दीजिए।” और लिखा : “आप ही ने तो कहा
था, 'अब अगले स्टेशन पर न आना।”
सहसा रेखा ने कहा, “सुनिए, आप मुझे छोड़ने क्या दो-चार स्टेशन भी न
चलेंगे? हापुड़ से लौट आइएगा।”
भुवन सिर्फ हँस दिया, कुछ बोला नहीं।
रेखा के चेहरे पर एक हल्की-सी उदासी खेल गयी। कापी में उसने लिखा, “नहीं,
मेरी ज़्यादती है।”
भुवन
ने फिर कापी ले ली। ज़ेब से कलम निकाल कर सुस्पष्ट अक्षरों में लिखा,
'अकेले हैं न, तभी लीक पकड़ कर चलते हैं।' फिर तनिक रुककर उस पर दुहरे
उद्धरण-चिह्न लगा दिये “-”
रेखा ने कापी देखी तो अचकचा कर बोल उठी, “यह-यह आपसे किसने कहा?”
भुवन हँसने लगा। फिर उसने लिखा, “मैंने कहा था न, मैन फ्राइडे जादू जानता
है?”
रेखा
ने कापी ले ली, और अपलक दृष्टि से भुवन को देखने लगी। फिर उसकी आँखें कुछ
विकेन्द्रित हो गयीं, जैसे उसके विचार कहीं दूर चले गये हों।
भुवन ने कहा, “मैं अभी आया।” और ओझल हो गया।
प्लेटफ़ार्म
पर चहल-पहल सहसा बढ़ गयी, जैसा गाड़ी चलने का समय हो जाने पर होता है।
रेखा कापी में लिखने लगी-”ठीक गाड़ी के जाने के समय आप कहाँ चले गये? मैं
गाड़ी चलने से पहले ही मानो खो गयी हूँ। इन स्त्रियों की बातें सुनती हूँ,
और अनुभव करती हूँ कि मैं गृहस्थिन तो पहले ही नहीं थी, अब शायद स्त्री भी
नहीं रही - कितनी दूर, कितनी दूर हैं मुझ से ये बातें। एक तीन बच्चों की
माँ है, एक पाँच की। एक के 'वह' लाम पर गये हैं। वहाँ से चाँदी के लच्छे न
जाने कैसे भिजवाये थे - चाँदी के मगर फ़िरोज़े जड़े। दूसरी के 'वह'...।”
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