उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
एक
हाथ में रेखा के दोनों हाथ पकड़े वह उठा, दूसरे हाथ से उसने कम्बल खींच कर
रेखा की पीठ भी ढक दी। स्वयं पैर समेट कर बैठा हो गया, कुछ रेखा की ओर को
उन्मुख।
रेखा सहसा हाथ छुड़ा कर उससे लिपट गयी। आँखें उसने बन्द
कर ली, भुवन के माथे पर अपना माथा टेक दिया। उसके ओंठ न जाने क्या कह रहे
थे; आवाज़ उनसे नहीं निकल रही थी।
भुवन कहता गया, “क्या बात है, रेखा; रेखा, क्या बात है।” उसका स्वर क्रमशः
धीमा और आविष्ट होता जा रहा था।
रेखा के ओंठ उसके कान के कुछ और निकट सरक आये। पर स्वर उनमें से अब भी
नहीं निकला।
पर सहसा भुवन जान गया कि वे शब्दहीन-स्वरहीन ओंठ क्या कह रहे हैं।
“मैं तुम्हारी हूँ, भुवन, मुझे लो।”
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