| उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    भुवन कुछ असम्बद्ध-सा बड़बड़ाने लगा।
    पहले ओठों की बिलकुल ही स्वरहीन गति। फिर एक धीमी फुसफुसाहट, कभी कहीं
    टूटा हुआ स्वर। रेखा एकाग्र होकर सुन भी रही थी और मानो अर्थ तक पहुँचने
    का यत्न भी नहीं कर रही थी... 
    
    लेकिन अर्थ स्वयं धीरे-धीरे अवगत होने लगा। 
    
    “यह
    इनकार नहीं है, रेखा; प्रत्याख्यान नहीं है...। यह सब बहुत सुन्दर है,
    बहुत सुन्दर...। वह-वह सौन्दर्य की चरम अनुभूति होती है - होनी चाहिए मैं
    मानता हूँ... इसीलिए डर लगता है, अगर वह - अगर वैसा न हुआ - जो सुन्दर है
    उसे मिटाना नहीं चाहिए... तुमने जो दिया है, उसके सौन्दर्य को मैं मिटाना
    नहीं चाहता, रेखा, जोखिम में नहीं डालना चाहता। वह बहुत सुन्दर है, बहुत
    सुन्दर...।” 
    
    और फिर बड़ी-बड़ी सिसकियों ने उसका स्वर तोड़ दिया;
    अब की बार उसने मुँह नहीं छिपाया, और रेखा वैसे ही बैठी रही, एक हाथ भुवन
    के कन्धे पर रखे, दूसरा अपनी जाँघ पर उसके चेहरे के नीचे; भुवन का पहला
    गर्म आँसू इस हाथ पर गिरा तो वह तनिक-सा सिहर गयी, फिर हाथ को उसने
    अंजुली-सा बना लिया और आँसू उसमें गिरते गये। 
    
    जब भुवन का आवेश
    कुछ कम हुआ तो रेखा ने अपना आँसुओं से भीगा हुआ हाथ खींचा, और भुवन के
    आँसू अपने केशों में और फिर अपनी छाती पर पोंछ लिए। फिर आँचल खींच कर धीरे
    से भुवन की आँखें पोंछ दी। जो हाथ कन्धे पर पड़ा था, वह अत्यन्त धीरे-धीरे
    उसे थपकने लगा। 
    
    भुवन धीरे-धीरे शान्त हो गया। एक ऐसी गहरी
    शिथिलता उसके सारे शरीर पर छा गयी मानो हफ्तों का रोगी हो। रेखा ने उसे
    धीरे-धीरे और ऊपर की ओर खींचा, उसका सिर अपनी छाती पर टेका, अपने आँचल से
    ढँक दिया। 
    
    एक स्निग्ध, करुण, वात्सल्य भरी गरमी से घिरा हुआ भुवन
    सो गया। न जाने कब एक बार उसकी नींद की घनता कुछ कम हुई, तो उसके कन्धे पर
    उस थपकी की वैसी ही सम, कोमल, अभयदा, त्राणमयी, छाप पड़ रही थी। वह फिर खो
    गया। 
    			
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