| उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    लेकिन प्रत्याख्यान की बात वह क्यों सोचता है? उसने तो
    कहा भी है, प्रत्याख्यान वह नहीं है। केवल सुन्दर, सुन्दर से सुन्दरतर वह
    चाहता है, और लोभ से सुन्दर को जोखिम में नहीं डालना चाहता। इसलिए और भी
    नहीं, कि रेखा उस जोखिम को समझती नहीं - या हेय मानती है। सहसा रेखा के
    प्रति एक गहरे कृतज्ञ भाव ने उसे द्रवित कर दिया। कैसे यह स्त्री सब-कुछ
    इस तरह उत्सर्ग कर दे सकती है, बिना कुछ प्रतिदान माँगे, बिना कोई सुरक्षा
    चाहे - बल्कि सुरक्षाओं की सब सम्भावनाओं को लात मार कर! क्यों? क्योंकि
    वह भुवन को प्यार करती है, उसे कुछ देना चाहती है? कुछ नहीं, सब कुछ, अपना
    आप। कैसी विडम्बना है यह स्त्री की शक्ति की, कि उसका श्रेष्ठ दान है
    स्वतः अपना लय-अपना विनाश! लेकिन लय के बिना और श्रेष्ठ दान कौन-सा हो
    सकता है? अहं की पुष्टि के लिए समर्पण नहीं, अहं का ही समर्पण समर्पण
    है...। 
    
    झुरमुट में बुरूस का स्थान अब बाँज ने ले लिया था, अधिक घने, ठण्डे और
    पुष्पविहीन। वह और अन्दर पैठता चला जा रहा था। 
    
    और वह? 
    
    क्यों
    वह रेखा की ओर से ही सोच रहा है, क्यों नहीं अपनी ओर से सोचता? वह-वह क्या
    चाहता है, क्या देना चाहता है, क्या वह रेखा को चाहता है? प्यार करता है?
    नकारात्मक उत्तर उसके भीतर से नहीं उठता, लेकिन क्यों नहीं सहज स्वीकारी
    उत्तर आता, क्यों यह स्तब्धता है... 
    
    सुन्दर से सुन्दरतर... चरम अनुभूति...।
    
    लेकिन तुम में अगर सौन्दर्य की चरम अनुभूति है, भुवन, तो डर कैसा? डर केवल
    सुन्दर में अविश्वास है। 
    			
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