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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“उस दृष्टि से - हाँ। मेरे लिए महत्त्व है व्यक्तियों का - विशेष व्यक्तियों का।” और एक अर्थ-भरी दृष्टि से उसने भुवन की ओर देख लिया। थोड़ी देर दोनों चुप रहे। फिर रेखा ने पूछा, “पहलगाँव रुकोगे?”

“सोचा तो था। पर अब नहीं - मुझे तुलियन पहुँचाने चलोगी न?”

“आप कहें तो! और पहलगाँव में टूथ-ब्रश न मिलेगा, इसलिए मैं सब साथ लायी हूँ।”

“सामान आने में दो-तीन दिन लगेंगे ही। चल सकते हैं। पर पहलगाँव से तुलियन सामान के साथ मैं स्वयं जाना चाहता हूँ।”

“बाधा नहीं बनूँगी, भुवन। जिस दिन सामान आवेगा उसी दिन चली जाऊँगी। बल्कि...”

“यह मेरा मतलब नहीं था।”

“जानती हूँ।” कह कर रेखा ने उसे चुप करा दिया।

ज्यों-ज्यों बस आगे जाती थी, त्यों-त्यों भुवन का मन अधिकाधिक तीखे झटकों के साथ पीछे जाता था। एक लघु क्षण के लिए, बस, लेकिन प्रत्येक बार एक टीस के साथ, और प्रत्येक बार न जाने कहाँ से उखड़े-उखड़े वाक्यांश लाता हुआ... 'स्वाधीनता का जोखिम'... 'आन्तरिक आलोक का जोखिम'... 'एण्ड द स्टार्स इन हर हेयर वेयर सेवन'... 'जुगनू तो सीली-सड़ी जगह में होते हैं'... 'आत्मा के नक्शे'... 'क्षण सीमान्त है'... 'वहाँ बालू होगी?' 'मैं शैरन का गुलाब हूँ, और उपत्यका की तितली...' 'डर, सुन्दर का डर, विराट् का डर'... 'दुःख जाना है, पर डर नहीं'... देर - एक बार अशान्त भाव से वह अपनी सीट में इधर-उधर मुड़ा। 'मेरी प्रिया बोली, उसने कहा, उठो प्रिय, और मेरे साथ आओ, क्योंकि शीत ऋतु बीत गयी है, वर्षा चुक गयी है, धरती में फूल जागते हैं, पक्षियों के गाने का समय आ गया है, और कुमरी का गूँजन सुन पड़ने लगा है। अंजीर के वृक्ष में नया फल आता है, और अंगूरी के कचिया अंगूर मधुर गन्ध दे रहे हैं। उठो, प्रिय, और चले आओ।'

सहसा स्पष्ट हो गया कि सालोमन के गीत के ये अंश उसे रेखा की कापी में से याद आ रहे हैं - क्यों? वह सीधा होकर बैठ गया। कापी के वाक्य और स्पष्ट होकर उसके आगे दौड़ने लगे। एक के बाद एक पंक्ति, जैसे सिनेमा की पंक्तियाँ मानो बेलन पर चढ़ी हुई घूमती जाती हैं और एक-एक पंक्ति आलोकित होती जाती है...।

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