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			 उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    रेखा ने सहमति प्रकट की। खानसामा
    को कह दिया गया। वह प्रबन्ध में लग गया। भोजन समाप्त होते न होते उसने
    कहा, “हूज़ूर हुकुम करें तो चाय फिर दे सकता हूँ।” 
    
    भुवन ने कहा, “अच्छा शुक्रिया-ठीक नौ बजे चाय दे देना।” 
    
    रेखा ने एक शाल कन्धे पर डाल ली और कहा, “मैं उस समय तक तम्बू के भीतर
    नहीं आऊँगी।” 
    
    “तो मैं ही कौन बैठ रहा हूँ।” 
    
    दोनों फिर बाहर टहलने लगे। 
    
    दिन
    छिप रहा था, लेकिन छिपा ठीक नहीं, क्योंकि द्वाभा में एक आलोक के क्षीण
    होते न होते दूसरा उज्ज्वल हो गया। बड़े-से चाँद की चन्द्रिका सारे
    वातावरण में फैल गयी। 
    
    दोनों किनारे-किनारे बढ़ते हुए काफ़ी आगे
    निकल गये। यहाँ पानी के बिलकुल पास एक चट्टान पर बैठकर रेखा झुककर हाथ से
    पानी उछालने लगी। भुवन भी बैठ गया, पानी में हाथ उसने भी डाल दिये। पानी
    बहुत ठण्डा था। लेकिन उसकी छलछलाहट बड़ी मधुर थी; ठण्ड, ऊँचाई और चाँदनी
    से स्फटिक से निखरे हुए वातावरण में उसमें छोटे घुँघरुओं की-सी रुनझुनाहट
    थी। 
    
    “अंग्रेज़ी हो तो माइंड करोगे?” 
    
    भुवन ने प्रश्न समझते हुए कहा, “बिलकुल नहीं।” 
    
    रेखा गाने लगी : 
    
    लव मेड ए जिप्सी आउट
      आफ़ मी! 
    
    (प्यार ने मुझे खानाबदोश बना दिया।) 
    			
						
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