| उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    “भुवन, तुम वैज्ञानिक हो। लेकिन तुम्हारी आकांक्षा क्या थी - वैज्ञानिक
    होने की ही, या और कुछ?” 
    
    “क्यों?” कहकर भुवन तनिक रुका, फिर जैसे सच बता देने को बाध्य हो, ऐसे
    बोला, “मेरा स्वप्न था डाक्टर होने का - बहुत बड़ा सर्जन।” 
    
    “और मेरा था बीनकार होने का - बहुत बड़ी बीनकार।” 
    
    दोनों थोड़ी देर चुप रहे। फिर रेखा ने धीरे-धीरे कहा : “उसे मैं वीणा भी
    सिखाऊँगी-और वह बड़ा सर्जन भी होगा।” 
    
    एक सन्नाटा-नदी के स्वर से स्पन्दित। 
    
    थोड़ी देर बाद वह खड़ी हो गयी। भुवन का हाथ पकड़े-पकड़े उसे उठाया, और हाथ
    पकड़े ही पार हो गयी। 
    
    बस्ती के पास भुवन ने पूछा, “पहलगाँव ठहरोगी? मैं चौथे-पाँचवें दिन आऊँगा
    डाक-वाक देखने।” 
    
    “शायद, अभी कुछ सोचा नहीं।” 
    
    लेकिन
    भुवन के कुली जब आ गये, और वह उन्हें आगे चलाकर थोड़ी देर होटल के बरामदे
    में रेखा के पास खड़ा रहा, और फिर सहसा कुछ भी कहना असम्भव पाकर रेखा के
    हाथ को जोर से भींचकर, एक कन्धे से उसका आधा आलिंगन करके जल्दी से उससे
    टूटकर, अलग होकर बिना लौट कर देखे चला गया - रेखा भी बोली नहीं, केवल बेबस
    हाथ बढ़ाये खड़ी रह गयी - उसके घंटा-भर बाद जब कुली ऊपर से रेखा का सामान
    लेकर आ पहुँचा, तो वह रुकी नहीं, तत्काल बस में जा बैठी और श्रीनगर के लिए
    रवाना हो गयी। 
    			
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