उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
तोमाय
साजाबो यतने कुसुमे
रतने
केयूरे कंकणे कुंकुमे
चन्दने
साजाबो
किंशके रंगणे।
तोमाय...
गान दोनों श्रोताओं के लिए कुछ अप्रत्याशित था; चन्द्र ने भवें हल्की-सी
उठायी, गौरा सीधी होकर बैठ गयी। रेखा गाती रही :
कुन्तले बेष्टिबो
स्वर्ण -जालिका
कण्ठे दुलाइबो मुक्ता
-मालिका
सीमान्ते सिन्दूर अरुण
बिन्दुर
चरण रंजिबो अलक्त
-अंकणे
किंशुके रंगणे तोमाये।
साजाबो
(तुम्हें
यत्नपूर्व सजाऊँगा कुसुमों-रत्नों से, केयूर-कंकण से, कुंकुम-चन्दन से,
किंशुक और रंगन के फूलों से। कुन्तलों में स्वर्ण-जालिका पहनाऊँगा, कण्ठ
में मुक्ता-मालिका झुलाऊँगा; सीमन्त में अरुण सिन्दुर-बिन्दु, चरणों में
अलक्तक-तुम्हें सजाऊँगा... -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
|