उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
हेमेन्द्र...कहाँ
होगा हेमेन्द्र अब? चन्द्र ने कोशिश की, रेखा और हेमेन्द्र की साथ कल्पना
करे, पर उसमें किसी तरह सफलता नहीं मिली, हेमेन्द्र की शबीह वह किसी तरह
सामने लाता तो रेखा की बजाय गौरा आ जाती; फिर वह संकल्प-पूर्वक उसे हटा कर
रेखा को सामने लाता और हेमेन्द्र की बजाय भुवन सामने आ जाता...हार कर उसने
सिगरेट मुँह से निकाल कर उठकर एक ओर को थूका; फिर बैठ गया। बेयरा ह्विस्की
ले आया; ट्रे में सोडा भी था पर चन्द्र ने ग्लास उठाकर इशारे से सोडा-पानी
सब मना किया और उठा कर दो-तीन घूँट ह्विस्की के ही पी डाले। फिर उसने ज़ोर
लगाना छोड़ दिया : न सही हेमेन्द्र, वह जो आवेगा उसी को देखेगा-गौरा सही,
रेखा सही; उसकी अपनी पत्नी सही...।
और यह मानव मन की प्रतिकूलता ही है कि उसके मानस-पटल पर रह-रहकर दो
आकृतियाँ खिंचने लगीं-कभी उसकी पत्नी की, कभी हेमेन्द्र की...।
उसने
एकदम से उठाकर गिलास खाली कर दिया। आकृतियाँ कुछ फीकी हो गयीं, मिट गयीं।
हाँ, यह ठीक है। आकृतियों की कोई ज़रूरत नहीं है। वह सोच रहा है, उतना ही
काफ़ी है। देखना तो वह नहीं चाहता किसी को...पर क्या सोच रहा है? हाँ, वह
कुछ ज़रूरी बात सोच रहा था, कुछ काम उसे करना है...।
उसने फिर पुकारा, “बेयरा।”
दूसरे
डबल के साथ उसने सोडा भी लिया। फिर बेयरा से लिखने का कागज़ सामने रखकर वह
उसकी चिकनी सफ़ेद सतह को देखता हुआ घूँट-घूँट ह्विस्की पीता रहा, थोड़ी
देर बाद उसने जेब से कलम निकाल कर पत्र लिखना शुरू किया-हेमेन्द्र को।
लेकिन
सम्बोधन लिखकर ही वह रुक गया। क्या लिखे, कैसे लिखे? इतने वर्षों में कभी
तो उसने हेमेन्द्र को कुछ लिखा नहीं...उसने सिगरेट सुलगा कर लम्बा कश
लिया, धुएँ के छल्ले बनाने के लिए ठोड़ी ऊँची उठाकर मुँह गोल करना चाहा पर
ओठ जैसे अवश हो रहे थे, मुँह के आसपास की पेशियाँ उसका आदेश नहीं मान रही
थीं और ऊपर के ओठ के सिरे पर एक अजीब फड़कन होने लगी थी जिसे वह किसी तरह
नहीं रोक पा रहा था।
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