उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
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रेखा ने भी भुवन को एक पत्र लिखा पर उसे फाड़ फेंकने की बजाय अधूरा छोड़ दिया, और निश्चय किया कि वह उसे भेजेगी नहीं। उसे सहसा लगा कि पत्र में लिखने को कुछ नहीं है क्योंकि बहुत अधिक कुछ है; अगर वह सब कहने बैठ ही जाएगी, तो फिर रुक नहीं सकेगी, और उधर भुवन का काम असम्भव हो जाएगा...पत्र में जान-बूझकर उसने अपनी बातें न कहकर इधर-उधर की कहना आरम्भ किया था, गौरा से भेंट की बात लिखने लगी थी पर उसी के अध-बीच में रुक गयी थी। नहीं, गौरा की बात वह भुवन को नहीं लिखेगी। भुवन का मन वह नहीं जानती, लेकिन गौरा का... भुवन गौरा का मन जानता है कि नहीं, यह भी वह नहीं जानती पर जहाँ भी गहरा कुछ, मूल्यवान् कुछ, आलोकमय कुछ हो, वहाँ दबे-पाँव ही जाना चाहिए, वह कहीं हस्तक्षेप नहीं करना चाहती, कुछ बिगाड़ना नहीं चाहती...नदी में द्वीप तिरते हैं टिमटिमाते हुए, उन्हें बहने दो अपनी नियति की ओर, अपनी निष्पत्ति की ओर, नदी के पानी को वह आलोड़ित नहीं करेगी। वह केवल अपना मन जानती है, अपना समर्पित विह्वल, एकोन्मुख, आहत मन : उसे वह भुवन तक प्रेषित भी कर सकती है, पर नहीं - भुवन से उसने कहा था, वह अपने स्वस्थ और स्वाधीन पहलू से ही उसे प्यार करेगी, और गौरा से उसने कहा है...। पर यह कैसे सम्भव है कि एक साथ ही समूचे व्यक्तित्व से भी प्यार किया जाए और उसके केवल एक अंग से भी? वह सबकी सब समर्पित है, स्वस्थ भी और आहत भी-बल्कि समर्पण में ही तो वह स्वस्थ है, अविकल, है, बन्धन-मुक्त है...भुवन, भुवन, मेरे भुवन, मेरे मालिक...।
वह घूमने जाएगी। जमना की रेती में-जहाँ बैठकर भुवन ने उसका बालू का घर बनाया था, बारिश से रेत जम गयी होगी, वहाँ बैठ कर वह साँझ घिरती देखेगी : दिल्ली की साँझ तुलियन की नहीं है, पर तारे वही होंगे; उन्हें देखते वह अपने को मिटा दे सकेगी, उनकी टिमटिमाहट में वह सिहरन पा सकेगी जो भुवन का आत्म-विस्मृत स्पर्श...रेखा सहसा सिहर गयी, कुरसी पर उसने सिर पीछे टेक दिया, आँखें बन्द कर लीं, शरीर को छोड़ दिया। ऐसे ही भुवन ने उसे पहले देखा था लखनऊ में; क्यों नहीं वह आगे बढ़कर उसकी पलकों और उठे हुए ओठों को छू सकता - क्यों वह दिल्ली में है, छिपकर 'मेन ओनली' पढ़ने वाली स्त्रियों के इस बोर्डिंग में, भीड़-भड़क्के की इस दिल्ली में, चन्द्रमाधव की दिल्ली में और - और हेमेन्द्र की दिल्ली में...।
रेखा उठ गयी - उठकर लाउंज में जा बैठी, दैनिक अखबार उठाये और 'वांटेड' के कालम देखने लगी।
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