उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
चन्द्रमाधव ने बिना झेंपते हुए कहा, “हाँ।”
“सेटिंग
कार्लटन होटल का डाइनिंग रूम। भोजन करते-करते रेखा देवी औंधे-मुँह सूप
प्लेट पर गिर गयी - हत्या के कारण का कोई अनुमान नहीं हो सका। लखनऊ के
स्टार पत्रकार चन्द्रमाधव पड़ताल कर रहे हैं! प्रोफ़ेसर भुवन भी घटना-स्थल
पर मौजूद थे - लेकिन क्या सचमुच? या कि तटस्थता से।”
“क्या कह रही हैं आप, रेखा देवी? ऐसी मनहूस कल्पना मत कीजिए।”
“मैं कहाँ? यह तो पीटर चेनी-”
“पीटर चेनी के लायक पात्र कार्लटन में ढेरों और हैं, आपको वह कष्ट नहीं
देगा।”
रेखा ने कृत्रिम निराशा का भाव दर्शाते कहा, “तो मैं पीटर चेनी के लायक भी
नहीं-”
भुवन
अतिरिक्त सजगता से रेखा को देखने लगा था। मन-ही-मन उसने सहमत होते हुए
कहा, “पीटर चेनी के लायक तो कदापि नहीं।” पर फिर किस के? हार्डी के? हाँ,
ऐसी कठपुतली पाकर भाग्य भी अपना भाग्य सराहेगा। पर रेखा उतनी भोली नहीं
है; उसमें एक बुनियादी दृढ़ता है जो...दोस्तोयेव्सकी? लेकिन क्या उसकी
चेतना वैसी विभाजित है-क्या उसमें वह अतिमानवी तर्क-संगति है जो वास्तव
में पागलपन का ही एक रूप है?...प्राचीन ग्रीक ट्रेजेडीकार-एक बनाम समूचा
देव-वर्ग...लेकिन रेखा में उतना अहं क्या है कि देवता उसे चुनें-कि वह
चुनी जाकर कष्ट पावे?...तब सार्त्र-क्षण की असीमता, यातना के क्षण की
असीमता...निस्सन्देह असीम सहिष्णुता उसमें है-व्यथा पाने का असीम
अन्तःसामर्थ्य, लेकिन वह इसीलिए कि आनन्द की असीम क्षमता उसमें है...आनन्द
की परा सीमा, यातना की परा सीमा-चुन सकते हैं उसे देवता, क्योंकि परा
सीमाएँ उसमें सोती हैं; नभः कांक्षी मानव, मृत्कामी देवता-ट्रेजेडी के सहज
यान-इकारस के पंख, प्रमथ्यु की आग...ग्रीक ट्रेजेडी केवल अहं की ट्रेजेडी
तो नहीं है, वह मानव की सम्भावनाओं की ट्रेजेडी है...
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