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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


वर्षा लगभग हो ली; पर बादल कभी-कभी घिर आते हैं और ठण्ड हो जाती है और यहाँ की वर्षा का कोई भरोसा भी नहीं, अगस्त के उत्तरार्द्ध में प्रायः बड़े जोरों का एक दौर आता है और कभी सितम्बर तक चला जाता है... काले बादलों के नीचे सारा दृश्य घुँट कर बन्द हो जाता है, पेड़ छोटे हो आते हैं, बँगला खिलौना-सा बन जाता है। मानो पूरा दृश्य अजायबघर के काँच के शो-केस में रखा हुआ एक मॉडल हो... केवल पहाड़ उभर कर बड़े भारी और तीखे हो आते हैं, जैसे आकाश के तेवर चढ़ गये हों, घनी काली भौंहें उभर-सिकुड़कर और भी काली हो गयी हों...। फिर धूप कभी निकल आती है और सारा दृश्य खिल आता है, मधु-मक्खियाँ गुंजार करने लगती हैं, धूप के उजलेपन में अन्तर्हित एक ललाई उस तेज को मीठा कर देती है; उसकी चुनचुनाहट त्वचा को सुहानी लगती है और नाड़ियों में अलस तन्द्राभर जाती है...यह अलसाना भाव ही पहाड़ के शरदारम्भ का पहला और सबसे प्रीतिकर चिह्र होता है - सबसे प्रीतिकर भी, लेकिन साथ ही एक विशेष प्रकार की व्याकुलता लिये हुए...। उस व्याकुलता को रेखा नाम देना नहीं चाहती; नाम देना आवश्यक भी नहीं है, क्योंकि धमनियों में उसकी अकुलाहट के साथ ही मन में जो विचार या वांछा-चित्र उठते हैं वे अपने-आप में सम्पूर्ण होते हैं। इस अर्थ मंक सम्पूर्ण कि समूचे अस्तित्व की माँगें उनमें अभिव्यक्ति पा लेती हैं...। पहाड़ की पहली शरद का यह मदालस भाव अकेले अनुभव करने का नहीं है, क्योंकि वह मूलतः एक प्रतिकर्षित भाव नहीं है जैसी जाड़ों की ठिठुरन-सिकुड़न, न वैसा मुक्त विस्फूर्जित भाव है जैसा बरसात का उल्लास; वह मूलतः एक उन्मुख भाव है, अन्यापेक्षी भाव, जो दूसरे की उपस्थिति से ही रसावस्था तक पहुँचता है...।

रेखा ने एक लम्बी साँस ली। दूसरे की उपस्थिति... तुलियन की चाँदनी झील के वक्ष को दुलराती हुई धुन्ध की बाँह, उसकी छाती को बहुत हलके गुदगुदाते सोनगाभा के फूल और वह स्निग्ध गरमाई जिसे वह नाम नहीं देगी, जिसका चित्र वह अपने आगे मूर्त्त नहीं करेगी...एक सिहरन-सी उसकी देह में दौड़ गयी, वह उठकर खड़ी हो गयी और पत्र को पढ़ती हुई चलने लगी; पर उठते ही उसे चक्कर-सा आने लगा, मतली होने लगी, आँखों के आगे अँधेरा-सा छा गया, चिट्ठी का सफेद कागज़ नीला हो गया और स्याह अक्षर हरे-सुनहले होकर मानो एक दूसरे से उलझते-लड़खड़ाते कभी पास कभी दूर होने लगे...वह उलटे पाँव चलकर हाथ से कुरसी टटोल कर फिर बैठ गयी; कड़े संकल्प से अपने को सँभाल कर उसने एक बार पत्र पूरा पढ़ डाला और फिर सफ़ाई से तीन तह कर के लिफ़ाफे में डाल कर बन्द कर दिया जिस पर पता पहले से लिखा था। फिर उसने पीठ और सिर पीछे टेक कर आँखें बन्द कर लीं, लिफ़ाफ़ा उसके हाथ से गोदी में झूल गया।

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